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खुड्डियायारकहा ( क्षुल्लिकाचार-कथा ) ७१
अध्ययन ३: श्लोक ४ टि०२८ 'पाणहा' के बाद 'पाए 'शब्द है। प्रश्न उठता है जूते पैरों में ही पहने जाते हैं। हाथ में या गले आदि में नहीं। फिर 'पाणहा पाए''पैरों में उपानत्' ऐसा क्यों लिखा? इसका उत्तर यह है कि गमन निरोग के पैरों से ही हो सकता है । 'पाद' शब्द निरोग शरीर का सूचक है। भाव यह है कि निरोग थमण द्वारा 'उपानत्' धारण करना अनाचार है'।
बौद्ध-भिक्षुओं के जूता पहनने के नियम के विषय में बौद्ध-आगम "विनयपिटक' में निम्नलिखित उल्लेख मिलते हैं
सोण कोटीबिंश को अर्हत्व की प्राप्ति हुई उसके बाद बुद्ध बोले- "सोण ! तू सुकुमार है । तेरे लिए एक तल्ले के जूते की अनुमति देता हूं।" सोण बोला - "यदि भगवान् भिक्षु-संघ के लिए अनुमति दें तो मैं भी इस्तेमाल करूँगा, अन्यथा नहीं।" बुद्ध ने भिक्षु-संघ को एक तल्ले वाले जूते की अनुमति दी और एक से अधिक तल्ले वाले जूते के धारण करने में दुक्कट दोष घोषित किया ।
बाद में बुद्ध ने पहन कर छोड़े हुए बहुत तल्ले के जूते की भी अनुमति दी। नये बहुत तल्लेवाले जूते पहनना दुक्कट दोष था। आराम में जूते पहनने की मनाही थी। बाद में विशेष अवस्था में आराम में जूते पहनने की अनुमति दी। पहले बौद्ध-भिक्षु जूते पहनकर गाँव में प्रवेश करते थे । बाद में बुद्ध ने ऐसा न करने का नियम किया। बाद में रोगियों के लिए छूट दी।
बौद्ध-भिक्षु नीले-पीले आदि रंग तथा नीली-पीली आदि पत्तीवाले जूते पहनते। बुद्ध ने दुक्कट का दोष बता उन्हें रोक दिया। इसी तरह ऍड़ी ढंकनेवाले पुट-बद्ध, पलि गुंठिम, रुईदार, तीतर के पंखों जैसे, मेड़े के सींग से बंधे, बकरे के सींग से बँधे, विच्छू के डंक की तरह नोकवाले, मोर-पंख सिये, चित्र जूते के धारण में भी बुद्ध ने दुक्कट दोष ठहराया। उन्होंने सिंह-चर्म, व्याघ्र-चर्म, चीते के चर्म, हरिण के चर्म, उबिलाव के चर्म, बिल्ली के चर्म, कालक-चर्म, उल्लू के चर्म से परिष्कृत जूतों को पहनने की मनाही की ।
खट-खट आवाज करनेवाले काठ के खड़ाऊधारण करने में दुक्कट दोष माना जाता था। भिक्षु ताड़ के पौधों को कटवा, ताड़ के पत्तों की पादुका बनवा कर धारण करते थे । पत्तों के काटने से ताड़ के पौधे सूख जाते । लोग चर्चा करते-शाक्य-पुत्रीय घमण एकेन्द्रिय जीव की हिंसा करते हैं । बुद्ध के पास यह बात पहुँची। बुद्ध बोले- "भिक्षुओ ! (कितने ही) मनुष्य वृक्षों में जीव का ख्याल रखते हैं। ताल के पत्र की पादुका नहीं धारण करनी चाहिए । जो धारण करे उसे दुक्कट का दोष हो।"
भिक्षु बाँस के पौधों को कटवाकर उनकी पादुका बनवा धारण करने लगे । बुद्ध ने उपर्युक्त कारण से रुकावट की। इसी तरह तृण, भूज, बल्बज, हिताल, कमल, कम्बल की पादुका के मण्डन में लगे रहनेवाले भिक्षुओं को इनके धारण की मनाही की । स्वर्णमयी,
रौप्यमयी, मणिमयी, वैडूर्यमयी, स्फटिकमयी, काँसमयी, काँचमयी, राँगे की, शीशे की, ताँबे की पादुकाओं और काँची तक पहुँचनेवाली पादुका की भी मनाही हुई।
नित्य रहने की जगह पर तीन प्रकार की पादुकाओं के-चलने की, पेशाब-पाखाने की और आचमन की-इस्तेमाल की अनुमति थी। २८. ज्योति-समारम्भ ( समारंभं च जोइणोघ) :
ज्योति अग्नि को कहते हैं । अग्नि का समारम्भ करना अनाचार है। इसी आगम में आगे कहा है ... “साधु अग्नि को सुलगाने की कभी इच्छा नहीं करता। यह बड़ा ही पापकारी शस्त्र है। यह लोहे के अस्त्र-शस्त्रों की अपेक्षा अधिक तीक्ष्ण और सब ओर से दुराश्रय है । यह सब दिशा-अनुदिशा में दहन करता है । यह प्राणियों के लिए बड़ा आघात है, इसमें जरा भी संदेह नहीं । इसलिए संयमी मुनि प्रकाश व शीत-निवारण आदि के लिए किंचित् मात्र भी अग्नि का आरम्भ न करे और इसे दुर्गति को बढ़ानेवाला दोष जानकर इसका यावज्जीवन के लिए त्याग करे।" उत्तराध्ययन सूत्र में भी ऐसा ही कहा है। 'अग्नि-समारम्भ' शब्द में अग्नि के अन्तर्गत उसके सब रूप
१-- (क) अ० चू० पृ०६१ : उवाहणा पादत्राणं पाए । एतं किं भण्णति ? सामण्णे विसेसं ण (? बिसेसणं) जुत्त निस्सामण्णं
___पाद एव उवाहणा भवति ण हत्थादौ, भण्णति--पद्यते येन गम्यते यदुक्तं नीरोगस्स नीरोगो वा पादो। (ख) जि० चू० पृ० ११३ : सीसो आह-पाहणागहणेण चेव नज्जइ-जातो पाहणाओ ताओ पाएसु भवंति, ण पुण ताओ गलए
आविधिज्जंति, ता किमत्थं पायग्गहणंति, आयरिओ भणइ-पायग्गहणेणसेसकालं। २-विनयपिटक : महावग्ग : ५७७१.३-११ पृ० २०४ से २०८ तथा महावग्ग : ५७३२.८ पृ० २११ । ३-(क) अ० चू० पृ० ६१ : जोती अग्गी तस्स जं समारंभणं ।
(ख) जि० चू० पृ० ११३ : जोई अग्गी भण्णइ, तस्स अग्गिणो जं समारम्भणं । ४-दश० ६.३२-३३। ५-उत्त० ३५.१२ : विसप्पे सव्वओ धारे, बहू पाणविणासणे।
नत्थि जोइसमे सत्थे, तम्हा जोईन दीवए।
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