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दसवेआलियं ( दशवकालिक )
अध्ययन ३ : श्लोक ४ टि० २७ यहाँ यह उल्लेख कर देना आवश्यक है कि बौद्ध-भिशु चिकित्सा में सावद्य-निरवद्य का भेद नहीं रखते थे । बौद्ध-भिक्षुओं को रीछ, मछली, सोस, सुअर आदि की चर्बी काल से ले, काल से पका, काल से मिला सेवन करने से दोष नहीं होता था। हल्दी, अदरक, बच तथा अन्य भी जड़ वाली दवाइयाँ ले बौद्ध भिक्षु जीवन-भर उन्हें रख सकते थे और प्रयोजन होने पर उनका सेवन कर सकते थे। इसी तरह नीम, कुटज, तुलसी, कपास आदि के पत्तों तथा विडंग, पिप्पली आदि फलों को रखने और सेवन करने की छूट थी। अ-मनुष्य वाले रोग में कच्चे मांस और कच्चे खून खाने-पीने की अनुमति थी' । निम्रन्थ-श्रमण ऐसी चिकित्सा कभी नहीं कर सकते थे।
चिकित्सा का एक अन्य अर्थ वैद्यकवृत्ति -गृहस्थों की चिकित्सा करना भी है । उत्तराध्ययन में कहा है...''जो मंत्र, मूल --जड़ी-बूटी और विविध वैद्यचिन्ता वैद्यक-उपचार नहीं करता वह भिक्षु है।"
सोलह उत्पादन दोषों में एक दोष चिकित्सा भी है । उसका अर्थ है-औषधादि बताकर आहार प्राप्त करना । साधु के लिए इस प्रकार आहार की गवेषणा करना वर्जित है । आगम में स्पष्ट कहा है-भिक्षु चिकित्सा, मन्त्र, मूल, भैषज्य के हेतु से भिक्षा प्राप्त न करें । चिकित्सा शास्त्र को श्रमण के लिए पापश्रुत कहा है। २७. उपानव ( पाणहा ग ) :
पाठान्तर रूप में 'पाहणा' शब्द मिलता है। इसका पर्यायवाची शब्द 'वाहणा' का प्रयोग भी आगमों में है । सूत्रकृताङ्ग में 'पाणहा' शब्द है । 'पाहणा' शब्द प्राकृत ‘उवाहणा' का संक्षिप्त रूप है। 'पाहणा' और 'पाणहा' में 'ण' और 'ह' का व्यत्यय है । इसका अर्थ है --पादुका, पाद-रक्षिका अथवा पाद-त्राण" । साधु के लिए काष्ठ और चमड़े के जूते धारण करना अनाचार है।
व्यवहार सूत्र में स्थविर को चर्म-व्यवहार की अनुमति है। स्थविर के लिए जैसे छत्र धारण करना अनाचार नहीं है, वैसे ही चर्म रखना भी अनाचार नहीं है ।
अगस्त्य मुनि के अनुसार स्वस्थ के लिए 'उपानह' का निषेध है। जिनदास के मत से शरीर की अस्वस्थ अवस्था में पैरों के या चक्षुओं के दुर्बल होने पर 'उपानह' पहनने में कोई दोष नहीं। असमर्थ अवस्था में प्रयोजन उपस्थित होने पर पैरों में जूते धारण किये जा सकते हैं अन्य काल में नहीं । हरिभद्र सूरि के अनुसार 'आपत् काल' में जूता पहनने का कल्प है।
१-विनयपिटक : महावग्ग : ६ १.२-१० पृ०२१६-१८ । २-उत्त० १५.८ : मन्तं मूलं विविह वेज्जचिन्तं, . . . . . . . . . . . . . . . . . ।
. ... ... ... ..', तं परिन्नाय परिव्वए स भिक्खू॥ ३-पि०नि० : धाई दूई निमित्त आजीव वणीमगे तिगिच्छा य । ४--नि० १३.६६ : जे भिक्खू ति गच्छापिडं भुंजइ भुजंतं वा सातिज्जति । ५-प्रश्न० सं० १: न तिगिच्छामंतमूलभेसज्जकज्जहे. भिक्खं गवेसियव्वं । ६–ठा० ६.२७ : नवविध पावसुयपसंगे पं० तं० उप्पाते, णिमित्त, मंते, आइक्खिए, तिगिच्छए । कला आवरणे अण्णाणे
मिच्छापावयणेति य॥ ७--(क) दश० सूत्रम् (जिनयशः सूरिजी ग्रन्थरत्नमालायाः प्रथमं (१) सूत्रम्)
(ख) श्रीवशवकालिक सूत्रम् (मनसुखलाल द्वारा प्रकाशित); आदि ८-(क) नाया० अ० १५ : अणुवाहणस्स ओवाहणाओ दलयइ ।
(ख) भग० २.१ : वाहणाउ य पाउयाउ य। &-सू० १.६.१८ : पाणहाओ य..।... तं विज्जं परिजाणिया। १०-(क) सू० १.६.१८ टी०प०१८१ : उपानहौ-काष्ठपादुके।
(ख) भग० २.१ टी०: पादरक्षिकाम्।
(ग) अ० चू० पृ० ६१ : उवाहणा पाद-त्राणम् । ११-- व्यव० ८.५ : थेराणं थेर-भूमि-पत्ताणं कप्पइ चम्मे वा ...। १२—(क) अ० चू० पृ०६१: पद्यते येन गम्यते यदुक्तं नीरोगस्स नीरोगो वा पादो। (ख) जि० चू० पृ० ११३ : उवाहणाओ लोगसिद्धाओ चेव,... पायग्गहणेण अकल्लसरीरस्स गहणं कयं भवइ, दुब्बलपाओ
चक्खदुब्बलो वा उवाहणाओ आविधेज्जा ण दोसो भवइत्ति, किंचपादग्गहणणं एतं दंसेति – परिग्गहिया उवाहणाओ
असमत्थेण पओयणे उप्पण्णे पाएसु कायवा, ण उण सेसकालं । १३-हा० टी० ५० ११७ : तथोपानही पादयोरनाचरिते, पादयोरिति साभिप्रायक, न त्वापत्कल्पपरिहारार्थमुपग्रहधारणेन ।
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