________________
खुडियायारकहा ( क्षुल्लिकाचार-कथा )
अध्ययन ३: श्लोक५ टि० ३२ जिनदास महत्तर और हरिभद्र सूरि ने इसका अर्थ किया है -घर में अथवा दो घरों के अंतर में बैठना' । शीलांकाचार्य ने भी ऐसा ही अर्थ किया है । बृहत्कल्प-भाष्य में गृहान्तर के दो प्रकार बतलाए हैं -सद्भाव गृह-अन्तर और असद्भाव गृह-अन्तर । दो घरों के मध्य को सद्भाव-गृह-अन्तर और एक ही घर के मध्य को असद्भाव गृह-अन्तर माना है।
प्रस्तुत सूत्र (५.२.८) में कहा है : "गोचरान में प्रविष्ट मुनि कहीं न बैठे"- (गोयरग्गपविट्ठो उ, न निसीएज्ज कत्थई) । 'कहीं' शब्द का अर्थ जिनदास महत्तर ने घर, देवकुल, सभा, प्रपा आदि-आदि किया है । हरिभद्र सूरि ने भी 'कहीं' का ऐसा ही अर्थ किया है।
दशवकालिक सूत्र ( ६.५७,५६ ) में कहा है : “गोचराप्र में प्रविष्ट होने पर जो मुनि घर में बैठता है, वह अनाचार को प्राप्त होता है, अत: उसका वर्जन करना चाहिए।"
अगस्त्यसिंह स्थविर ने 'गृहान्तर' शब्द का अर्थ उपाश्रय से भिन्न घर किया है। सूत्रकृताङ्ग (१.९.२६) में कहा है : "साधू पर-गृह में न बैठे (परगेहे ण णिसीयए) । यहाँ गृहान्तर के स्थान में 'पर-वृह' शब्द प्रयुक्त हुआ है । शीलाङ्क सूरि ने 'पर-गृह' का अर्थ गृहस्थ का घर किया है।
उत्तराध्ययन सूत्र में जहाँ श्रमण ठहरा हुआ हो उस स्थान के लिए 'स्व-गृह' और उसके अतिरिक्त घरों के लिए 'पर-गृह' शब्द का प्रयोग किया गया है । दशवकालिक में भी 'परागार' शब्द का प्रयोग हुआ है । उक्त सन्दर्भो के आधार पर 'गृहान्तर' का अर्थ 'पर-गृह-उपाश्रय से भिन्न गृह होता है । यहाँ 'अन्तर' शब्द बीच के अर्थ में नहीं है किन्तु 'दूसरे के' अर्थ में प्रयुक्त है--जैसे—रूपान्तर, अवस्थान्तर आदि । अतः "दो घरों के अन्तर में बैठना" यह अर्थ यहाँ नहीं घटता।
'गृहान्त र-निषद्या' का निषेध 'गोचरान-प्रविष्ट' श्रमण के लिए है, या साधारण स्थिति में, इसकी चर्चा अगस्त्यसिंह स्थविर ने नहीं की है और आगम में गोचराग्र-प्रविष्ट मुनि के लिए यह अनाचार है, यह स्पष्ट है।
१---(क) जि० चू० १० ११४ : गिहं चेव गिहतरं तंमि गिहे निसेज्जा न कप्पइ, निसेज्जा णाम जंमि निसत्थो अच्छइ, अहवा दोण्हं
अंतरे, एत्थ गोचरग्गगतस्स णिसेज्जा ण कप्पइ, चकारगहणेण निवेसणवाडगादि सूइया, गोयरग्गगतेण न णिसियव्वंति । (ख) हा० टी० ५० ११७ : तथा गृहान्तरनिषद्या अनाचरिता, गृहमेव गृहान्तरं गृहयोर्वा अपान्तरालं तत्रोपवेशनम्, च शब्दा
त्पाटकादिपरिग्रहः । २--सू० १.६.२१ टीका प० १२८ : णिसिज्जं च गिहतरे-गृहस्यान्तर्मध्ये गृहयोर्वा मध्ये निषद्यां वाऽऽसनं वा संयमविराधना
भयात्परिहरेत् । ३--बृहत् भा० गा० २६३१ : सम्भावमतभावं, मझम सम्भावतो उ पासेणं ।
निव्वाहिमनिव्वाहि, ओकमइंतेसु सम्भावं ॥ मध्यं द्विधा- सद्भावमध्यमसद्भावमध्यं च । तत्र सद्भावमध्यं नाम- यत्र गृहपतिगृहस्य पान गम्यते आगम्यते वा छिण्डिकयेत्यर्थः, "ओकमइ तेसु" ति गृहस्थानाम् ओकः-गृहं संयताः संयतानां च गृहस्था मध्येन यत्र 'अतियन्ति' प्रविशन्ति उपलक्षण
त्वाद् निर्गच्छन्ति वा तदेतदुभयमपि सद्भावतः-परमार्थतो मध्यं सद्भावमध्यम् । ४ –जि० चू० पृ० १६५ : गोयरग्गगएण भिक्खुणा णो णिसियव्वं कत्थाइ घरे वा देवकुले वा सभाए वा पवाए वा एवमादि । ५.... हा० टी०प०१८४ : भिक्षार्थ प्रविष्ट...'नोपविशेत् 'क्वचिद्" गृहदेवकुलादौ । ६-अ० चू० पृ० ६१ : गिहंतरं पडिस्सयातो बाहिं जं गिहं, गेण्हतीति गिह, गिहं अंतरं च गिहंतरं, गिहतरनिसेज्जा जं उवविट्रो
अच्छति, चसद्देण वाडगसाहिनिवेसणादीसु। ७- सू० १.६.२६ टीका प०१८४ : साधुभिक्षादिनिमित्तं ग्रामादौ प्रविष्टः सन् परो-गृहस्थस्तस्य गृहं परगहं तत्र 'न निषोदेत्'
नोपविशेत् । ८- उत्त० १७.१८ : सयं गेहं परिच्चज्ज, परगेहं सि वावरे।
.......... पावसमणि त्ति वुच्चई॥ ६-(क) दश० ८.१६ : पविसित परागारं, पाणट्ठा भोयणस्स वा ।
(ख) जि० चू० पृ० २७६ : अगारं गिह भण्णइ, परस्स अगारं परागारं । (ग) हा० टी०प०२३१ : 'पविसित्तु' सूत्र, प्रविश्य 'परागारं' परगृहं ।
Jain Education Intemational
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org