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________________ दसवेलियं ( दशवैकालिक ) ७६ कोशकार वेत्रासन को आसंदी मानते हैं' । अथर्ववेद में आसंदी का सावयव वर्णन मिलता हैसंवत्सरमुष्ठितं देवा अब प्रात्यकिं नु तिष्ठतीति ॥ १२.३.१ वह संवत्सर (या संवत्सर भर से ऊपर) खड़ा रहा । उससे देवों ने पूछा : व्रात्य, तू क्यों खड़ा है ? १५.३.२ : सोऽब्रवीदासन्दीं मे सं भरन्त्विति ।। वह बोला मेरे लिए आसन्दी ( बिनी हुई चौकी) लाओ । १५.३.२ : तस्मै ब्रात्यायासन्दीं समभरन् । उस ब्रात्य के लिए ( वह देव गण ) आसन्दी लाए । १५.३.४ : तस्या ग्रीष्मश्च वसन्तश्च द्वौ पादावास्तां शरच्च वर्षाश्च द्वौ || उसके (आसंदी के ) ग्रीष्म और वसन्त दो पाये थे, शरद् और वर्षा दो पाये थे । ऐसा मानना चाहिए कि शिशिर और हेमन्त ऋतु की गणना शरद् में कर ली गई है। १५.३.५ : बृहच्च रथन्तरं वानूच्ये आस्तां यज्ञायज्ञियं च वामदेव्यं च तिरश्च्ये ॥ और रथन्तर, अनूच्य और यज्ञायज्ञिय तथा वामदेव तिरश्च्य थे । बृहत् (दाहिने बायें की लकड़ियों को अनुष्य तथा सिरहानेताने की लकड़ियों को तिरवच्य कहते हैं।) १५.३.६ : ऋचः प्राञ्चस्तन्तवो यजूंषि तिर्यञ्चः ॥ ऋक्, प्राञ्च और यजु तिर्यञ्च हुए I (ऋग्वेद के मंत्र सीधे सूत ( ताना) और यजुर्वेद के मंत्र तिरछे सूत ( बाना) हुए । ) १५.३.७ वेद आस्तरणं ब्रह्मम् ।। । वेद आस्तरण (बिछोना) और ब्रह्म उपबर्हण ( सिरहाना, तकिया) हुआ (ब्रह्म से अथवा मंत्रों से तात्पर्य है । १५.३.८ : सामासाद उद्गीथोऽपश्रयः ।। साम आसाद और उद्गीथ अपश्रय था । (आसाद बैठने की जगह और ग्रपश्रय टेकने के हत्थों को कहते हैं । उद्गीथ प्रणव (ॐकार ) का नाम है ।) १५. ३.६ : तामासन्दी ब्रात्य आरोहत् ।। उस आसन्दी के ऊपर व्रात्य चढ़ा | इसके लिए वैदिक पाठवली पृष्ठ १०५ और ३३६ भी देखिए । ३१. पर्यङ्क ( पलियंकए ख ) : जो सोने के काम में आए, उसे पर्यङ्क कहते हैं । इसी सूत्र (६.५४-५६) में इसके पीछे रही हुई भावना का बड़ा सुन्दर उद्घाटन हुआ है । वहाँ कहा गया है : "आसन, पलंग, खाट और आशालक आदि का प्रतिलेखन होना बड़ा कठिन है। इनमें गंभीर छिद्र होते हैं, इससे प्राणियों की प्रतिलेखना करना कठिन होता है । अतः सर्वज्ञों के वचनों को माननेवाला न इन पर बैठे, न सोए ।" सूत्रकृताङ्ग में भी आसंदी - पर्यङ्क को त्याज्य कहा है । मंच, आशालक, निषद्या, पीठ को भी आसंदी पर्यङ्क के अन्तर्गत समझना चाहिए । बौद्ध - विनयपिटक में आसंदी, पलंग को उच्चशयन कहा है और दुक्कट का दोष बता उनके धारण का निषेध किया है। पर चमड़े से बंधी हुई गृहस्थों की बारपाइयों या चौकियों पर बैठने की भिक्षुओं को अनुमति थी, लेटने की नहीं'। ग ३२. गृहान्तर-निषा ( गिहंतरनिसेज्जा ) : इसका अर्थ है- भिक्षाटन करते समय गृहस्थ के घर में बैठना । अध्ययन ३ श्लोक ५ टि० ३१ ३२ १- अ० चि ३.३४८ : स्याद् वेत्रासनमासन्दी । २ – (क) अ० चू० पृ० ६१ : पलियंको सयणिज्जं । (ख) सू० १.६.२१ टीका प० १८२ - 'पकः' शयनविशेषः । ३- सू० १.६.२१ : आसंदी पलियंके य Jain Education International ...... ... | , तं विज्जं परिजाणिया || .... ४ - दश० ६.५४, ५५ । ५ - विनयपिटक: महावग्ग ५६२.४ पृ० २०६ । ६ - विनयपिटक : महावग्ग ५२.८ पृ० २१०-११ । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003625
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Dasaveyaliyam Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1974
Total Pages632
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_dashvaikalik
File Size17 MB
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