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खुड्डियायारकहा ( क्षुल्लिकाचार-कथा)
अध्ययन ३ : श्लोक ५ टि० ३० शय्यातर का पिण्ड लेने का निषेध उद्गम-शुद्धि आदि कई दृष्टियों से किया गया है।
अगस्त्यसिंह स्थविर ने यहाँ एक वैकल्पिक पाठ माना है. पाट विसेसो-'सेज्जातर पिडं च, आसण्ण परिवज्जए'।" इसके अनुसार "शय्यातर-पिण्ड लेना जैसे अनाचार है, वैसे ही उसके घर से लगे हुए सात घरों का पिण्ड लेना भी अनाचार है । इसलिए श्रमण को शय्यातर का तथा उसके समीपवर्ती सात घरों का पिंड नहीं लेना चाहिए।"
जिनदास महत्तर ने भी इस पाठान्तर व इसकी व्याख्या का उल्लेख किया है । किन्तु टीका में इसका उल्लेख नहीं है ।
सुत्रकृताङ्ग में शय्यातर' के स्थान में 'सागारियपिण्ड' का उल्लेख है। टीकाकार ने इसका एक अर्थ-सागारिक पिण्ड-अर्थात् शय्यातर का पिण्ड किया है।
३०. आसंदी ( आसंदी ):
आसंदी एक प्रकार का बैठने का आसन है । शीलाङ्क सूरि ने आसन्दी का अर्थ वर्दी, मुंज, पाट या सन के सूत से गुंथी हुई खटिया किया है। निशीथ-भाष्य-चूणि में काष्ठमय आसंदक का उल्लेख मिलता है । जायसवालजी ने भी हिन्दू राज्य-तन्त्र' में इसकी चर्चा की है-"आविद् या घोषणा के उपरांत राजा काठ के सिंहासन (आसंदी) पर आरूढ़ होता है, जिसपर साधारणत: शेर की खाल बिछी रहती है। आगे चलकर हाथी दांत और सोने के सिंहासन बनने लगे थे, तब भी काठ के सिंहासन का व्यवहार किया जाता था (देखो महाभारत (कुंभ) शान्ति पर्व ३६, २. ४. १३. १४) । यद्यपि वह (खदिर की) लकड़ी का बनता था, परन्तु जैसा कि ब्राह्मणों के विवरण से जान पड़ता है, विस्तृत और विशाल हुआ करता था।"
असणे पाणे वत्थे पादे, सुती आदि जेसि ते सूतीयादिगा--सूती पिप्पलगो नखरदनी कण्णसोहणयं । इमो बारस विहोअसणाइया चत्तारि, वत्थाइया चत्तारि, सूतियादिया चत्तारि, एते तिण्णि चउक्का बारस भवति । इमो पुणो अपिंडो---तण-डगल-छार-मल्लग, सेज्जा-संथार-पीढ-लेवादी।
सेज्जातरपिंडेसो, ण होति सेहोव सोवधि उ॥ लेवादी, आदिसहातो, कुडमुहादि, एसो सम्वो सेज्जातरपिडो ण भवति । जति सेज्जाय रस्स पुत्तो धूया वा वत्थपायसहिता पव्वएज्जा सो सेज्जातरपिंडो ण भवति । १.--नि० भा० गा० ११५६, ११६८ : तित्थंकरपडिकुट्ठो, आणा-अण्णाय-उग्गमो ण सुज्झे।
अविमुत्ति अलाघवता, दुल्लभ सेज्जा य वोच्छेदो । थल-देउलियट्ठाणं, सति कालं दटु दह्र तहिं गमणं ।
णिग्गते बसही भुंजण, अण्णे उभामगा उट्टा ॥ २-अ० चू० पृ०६१ : एतम्मि पाढे सेज्जातरपिंड इति भणिते कि पुणो भण्णति-"आसणं परिवज्जए ?" विसेसो दरिसिज्जति
-जाणि वि तदासण्णाणि सेज्जातरतुल्लाणि ताणि सत्त वज्जेतवाणि । ३-जि० चु० पृ० ११३-४ : अहवा एतं सुत्त एवं पढिज्जइ 'सिज्जातरपिंडं च आसन्न परिवज्जए । सेज्जातरपिंडं च, एतेण चेव
सिद्ध जं पुणो आसन्नग्गहणं करेइ तं जाणिवि तस्स गिहाणि सत्त अणंतरासण्णाणि ताणिवि। सेज्जातरतुल्लाणि दट्टव्वाणि,
तेहितोवि परओ अन्नाणि सत्तवज्जेयवाणि । ४---सू० १.६.१६ : सागारियं च पिडं च, तं विज्जं परिजाणिया। ५.-सू० १.६.१६ टीका प० १८१ : 'सागारिकः' शय्यातरस्तस्य पिण्डम् --आहारं । ६-(क) अ० चू० ३.५ : आसंदी-उपविसणं; अ० चू० ६.५३ : आसंदी -आसणं ।
(ख) सू० १.६.२१ टीका प० १८२ : 'आसन्दी' त्यासन विशेषः । ७-सू० १.४.२. १५ टी० ५० ११८ : 'आसंदियं च नवसुत्त'-आसंदिकामुपवेशनयोग्यां मञ्चिकाम् ‘नवं-प्रत्यग्र' सूत्रं वल्कव
लितं यस्यां सा नवसूत्रा ताम् उपलक्षणार्थत्वावध चर्मावनद्धां वा। ८-नि० भा० गा० १७२३ चू० : आसंदगो कठ्ठमओ अझुसिरो लम्भति । E-हिन्दू राज्य-तंत्र (दूसरा खण्ड) पृष्ठ ४८ । १०-हिन्दू राज्य-तंत्र (दूसरा खण्ड) पृष्ठ ४८ का पाद-टिप्पण ।
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