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________________ १८७ अध्ययन ५ (प्र० उ०) : श्लोक ४६-५५ पिंडेसणा ( पिण्डषणा ) ४१--असणं पाणगं वा वि खाइमं साइमं तहा। जं जाणेज्ज सुणेज्जा वा पुण्णट्ठा पगडं इमं n अशनं पानकं वाऽपि, खाद्य स्वाद्य तथा । यज्जानीयात् शृणुयाद्वा, पुण्यार्थ प्रकृतमिदम् ॥४६॥ ४६-५०-यह अशन, पानक, खाद्य और स्वाद्य पुण्यार्थ तैयार किया हुआ१५२ है, मुनि यह जान जाये या सुन ले तो वह भक्त-पान संयति के लिये अकल्पनीय होता है, इसलिए मुनि देती हुई स्त्री को प्रतिषेध करे---इस प्रकार का आहार में नहीं ले सकता । ५०-तं भवे भत्तपाणं तु संजयाण अकप्पियं ।। दंतियं पडियाइक्खे न मे कप्पइ तारिसं ॥ तद्भवेद् भक्त-पानं तु, संयतानामकल्पिकम् । ददती प्रत्याचक्षीत, न में कल्पते तादृशम् ॥५०॥ ५१-असणं पाणगं वा वि खाइमं साइमं तहा। जं जाणेज्ज सुणेज्जा वा वणिमट्ठा पगडं इमं ॥ अशनं पानकं वाऽपि, खाद्य स्वाद्यं तथा। यज्जानीयात् शृणुयाद्वा, वनीपकार्थ प्रकृतमिदम् ॥५१॥ ५१-५२--यह अशन, पानक, खाद्य और स्वाद्य वनीपकों-भिखारियों के निमित्त तैयार किया हुआ१५३ है, मुनि यह जान जाये या सुन ले तो वह भक्त-पान संयति के लिए अकल्पनीय होता है, इसलिए मुनि देती हुई स्त्री को प्रतिषेध करे-इस प्रकार का आहार मैं नहीं ले सकता। ५२-तं भवे भत्तपाणं तु - संजयाण अकप्पियं । देंतियं पडियाइक्खे न मे कप्पइ तारिसं । तद्भवेद् भक्त-पानं तु, संयतानामकल्पिकम् । ददती प्रत्याचक्षीत, न मे कल्पते तादृशम् ॥५२॥ ५३-असणं पाणगं वा वि खाइमं साइमं तहा। जं जाणेज्ज सुणेज्जा वा। समणट्ठा पगडं इमं ॥ अशनं पानकं वाऽपि, खाद्य स्वाद्य तथा। यज्जानीयात् शृणुयाद्वा, श्रमणार्थ प्रकृतमिदम् ॥५३॥ ५३-५४---यह अशन, पानक, खाद्य और स्वाद्य श्रमणों के निमित्त तैयार किया हुआ है, मुनि यह जान जाये या सुन ले तो वह भक्त-पान संयति के लिए अकल्पनीय होता है, इसलिए मुनि देती हुई स्त्री को प्रतिषेध करे...-इस प्रकार का आहार मैं नहीं ले सकता। ५४-तं भवे भत्तपाणं तु संजयाण अकप्पियं । देतियं पडियाइक्खे न मे कप्पइ तारिसं ॥ तद्भवेद् भक्त-पानं तु, संयतानामकल्पिकम् । ददती प्रत्याचक्षीत, न मे कल्पते तादृशम् ॥५४॥ ५५---उद्देसियं पूईकम्मं अज्झोयर मीसजायं च कोयगडं आहडं। पामिच्चं वज्जए॥ औद्देशिकं कोतकृत, पूतिकर्म आहृतम् । अध्यवतर प्रामित्यं, मिश्रजात च वर्जयेत् ॥५५॥ ५५---औद्देशिक, क्रीतकृत, पूतिकर्म,१५४ आहृत, अध्यवतर१५५ प्रामित्य १५६ और मिश्रजात५७ आहार मुनि न ले। च Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003625
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Dasaveyaliyam Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1974
Total Pages632
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_dashvaikalik
File Size17 MB
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