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________________ १८६ अध्ययन ५ (प्र० उ० ) : श्लोक ४२-४८ दसवेआलियं ( दशवकालिक ) ४२–थणगं पिज्जेमाणी दारगं वा कुमारियं । तं निविखवित्त रोयंतं आहरे पाणभोयणं ॥ स्तनकं पाययन्ती, दारकं वा कुमारिकाम् । तं (तां) निक्षिप्य रुदन्तं, आहरेत् पान-भोजनम् ॥४२॥ ४२-४३-बालक या बालिका को स्तनपान कराती हुई स्त्री उसे रोते हुए छोड़१४७ भक्त-पान लाए, वह भक्त-पान संयति के लिए अकल्पनीय होता है, इसलिए मुनि देती हुई स्त्री को प्रतिषेध करे- इस प्रकार का आहार में नहीं ले सकता। ४३-तं भवे भत्तपाणं तु संजयाण अकप्पियं। देंतियं पडियाइक्खे न मे कप्पइ तारिसं ॥ तद्भवेद् भक्तपानं तु, संयतानामकल्पिकम् । ददती प्रत्याचक्षीत, न मे कल्पते तादृशम् ॥४३।। ४४-जं भवे भत्तपाणं तु कप्पाकप्पम्मि संकियं । देतियं पडियाइक्खे न मे कप्पइ तारिसं ॥ यद्भवेद् भक्त-पानं तु, कल्प्याकल्प्ये शङ्कितम् । ददती प्रत्याचक्षीत, न मे कल्पते तादृशम् ॥४४॥ ४४- जो भक्त-पान कल्प और अकला की दृष्टि से शंका-युक्त हो,१४८ उसे देती हुई स्त्री को मुनि प्रतिषेध करे --- इस प्रकार का आहार में नहीं ले सकता। -दगवारएण पिहियं नीसाए पीढएण वा। लोढेण वा वि लेवेण सिलेसेण व केणइ ॥ 'दगवारएण' पिहितं, 'नीसाए' पीठकेन वा। ग्लोढेण' वाऽपि लेपेन, श्लेषेण वा केनचित् ॥४५॥ ४५-४६ जल-कुंभ, चक्की, पीठ, शिलापुत्र (लोढ़ा), मिट्टी के लेप और लाख आदि श्लेष द्रव्यों से पिहित (ढंके, लिपे और मूंदे हुए) पात्र का श्रमण के लिए मुंह खोल कर, आहार देती हुई स्त्री को मुनि प्रतिषेध करे- इस प्रकार का आहार मैं नहीं ले सकता। ४६-तं च उभिदिया देज्जा समणट्ठाए व दावए। देतियं पडियाइक्खे न मे कप्पइ तारिसं ॥ तच्चोद्भिद्य दद्यात्, श्रमणार्थं वा दायकः। ददती प्रत्याचक्षीत, न मे कल्पते तादृशम् ॥४६॥ ४७-असणं पाणगं वा वि खाइमं साइमं तहा।। जं जाणेज्ज सुणेज्जा वा दाणट्ठा पगडं इमं ॥ अशनं पानकं वाऽपि, खाद्य स्वाद्य तथा। यज्जानीयात् शृणुयाद्वा, दानार्थ प्रकृतमिदम् ॥४७॥ ४७-४८-यह अशन, पानक,१५° खाद्य और स्वाद्य दानार्थ तैयार किया हुआ१५१ है, मुनि यह जान जाए या सुन ले तो वह भक्तपान संयति के लिए अकल्पनीय होता है, इसलिए मुनि देती हुई स्त्री को प्रतिषेध करे-- इस प्रकार का आहार में नहीं ले सकता । ४८-तं भवे भत्तपाणं तु संजयाण अकप्पियं । देंतियं पडियाइक्खे न मे कप्पइ तारिसं॥ तद्भवेद् भक्त-पानं तु, संयतानामकल्पिकम् । ददती प्रत्याचक्षीत, न मे कल्पते तादृशम् ॥४८॥ Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003625
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Dasaveyaliyam Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1974
Total Pages632
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_dashvaikalik
File Size17 MB
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