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खुड्डियायारकहा (क्षुल्लिकाचार-कथा) ६५ अध्ययन ३ : श्लोक १३ टि० ५७-५८ पर टिका कर-एक पादासन कर, खड़े-खड़े आतापना लेनी चाहिए'। जिनदास महत्तर ने ऊर्वबाहु होकर ऊकडू आसन में आतापना लेने को मुख्यता दी है। जो वैसा न कर सकें वे अन्य तप करें।
हेमन्त ऋतु में अप्रावृत होकर प्रतिमा-स्थित होना चाहिए। यदि अप्रावृत न हो सके तो प्रावरण सीमित करना चाहिए।
वर्षा ऋतु में पवन रहित स्थान में रहना चाहिए, ग्रामानुग्राम विहार नहीं करना चाहिए। स्नेह-सूक्ष्म जल के स्पर्श से बचने के लिए शिशिर में निवात-लयन का प्रसंग आ सकता है । भगवान् महावीर शिशिर में छाया में बैठकर और ग्रीष्म में ऊकडू आसन से बैठ, सूर्याभिमुख हो आतापना लेते थे।
श्लोक १३: ५७. परीषह ( परीसह ):
मोक्ष-मार्ग से च्युत न होने तथा कर्मों की निर्जरा के लिए जिन्हें सम्यक् प्रकार से सहन करना चाहिए वे परीषह हैं । वे क्षुधा, तृषा आदि बाईस हैं। ५८. धुत-मोह ( धुयमोहा ):
___ अगस्त्यसिंह ने 'धुतमोह' का अर्थ विकीर्णमोह, जिनदास ने जितमोह और टीकाकार ने विक्षिप्तमोह किया है । मोह का अर्थ अज्ञान किया गया है । 'धुत' शब्द के कम्पित, त्यक्त, उच्छलित आदि अनेक अर्थ होते हैं।
जैन और बौद्ध साहित्य में 'धुत' शब्द बहुत व्यवहृत है। आचाराङ्ग (प्रथम श्रुतस्कंध) के छठे अध्ययन का नाम भी 'धुय' है। नियुक्तिकार के अनुसार जो कर्मों को धुनता है, प्रकम्पित करता है, उसे भाव-धुत कहते हैं। इसी अध्ययन में 'धुतवाद' शब्द मिलता है । 'धुतवाद' का अर्थ है—कर्म को नाश करने वाला वाद ।
बौद्ध-साहित्य में 'धुत' 'धुतांग' 'धुतांगवादी' 'धुतगुण' 'धुतवाद' 'धुतवादी' आदि विभिन्न प्रकार से यह शब्द प्रयुक्त हुआ है । क्लेशों के अपगम से भिक्षु विशुद्ध होता है । वह 'धुत' कहलाता है । ब्राह्मण-धर्म के अन्तर्गत जो तापस होते थे, उन्हें वैखानस कहते थे । बौद्ध-भिक्षुओं में भी ऐसे भिक्षु होते थे, जो वैखानसों के नियमों का पालन करते थे । इन नियमों को 'धुतांग' कहते हैं। 'धुतांग' १३ होते हैं : वृक्षमूल-निकेतन, अरण्यनिवास, श्मशानवास, अभ्यवकासवास, पांशु-कूल-धारण आदि ।
१--(क) अ० चू० पृ० ६३ : गिम्हासु थाणमोणबीरासणादि अणेग विधं तवं करेंति, विसेसेणं तु सूराभिमुहा एगपादट्ठिता
उद्धभूता आतावति ।।
(ख) हा० टी० ५० ११६ : आतापयन्ति-ऊर्ध्वस्थानादिना आतापनां कुर्वन्ति । २-जि० चू० प ११६ : गिम्हेसु उडबाहुउक्कुडुगासणाईहिं आयाति, जेवि न आयाति ते अण्णं तव विसेसं कुम्वन्ति । ३ – (क) अ० चू० पृ० ६३ : हेमंते अग्गिणिवातसरणविरहिता तहा तवोवीरियसंपण्णा अबंगुता पडिम ठायंति।
(ख) जि० चू० पृ० ११६ : हेमंते पुण अपंगुला पडिमं ठायंति, जेवि सिसिरे णावगुडिता पडिम ठायंति तेवि विधीए पाउणंति ।
(ग) हा० टी०प० ११६ : 'हेमन्तेषु' शीतकालेषु 'अप्रावृता' इति प्रावरणरहितास्तिष्ठन्ति । ४--(क) अ० चू० पृ० ६३ : सदा इंदिय-नोइंदियपडिसमल्लीणा विसेसेण सिणेहसंघट्टपरिहरणत्थं णिवातलतणगता वासासु पडि
संलोणा ण गामाणुगाम दूतिज्जति। (ख) जि० चू० पृ० ११६ : वासासु पडिसल्लीणा नाम आश्रयस्थिता इत्यर्थः, तवविसेसेसु उज्जमंती, नो गामनगराइसु विहरति ।
(ग) हा० टी० ५० ११६ : वर्षाकालेषु 'संलोना' इत्ये काश्रयस्था भवन्ति । ५-(क) आ० ६.४.३ : सिसिरमि एगदा भगवं, छायाए शाइ आसीय ।
(ख) आ० ६.४.४ : आयावई य गिम्हाणं, अच्छइ उक्कुडुए अभितावे ।। ६-तत्त्वा० ६.८ : मार्गाच्यवननिर्जराथ परिषोढव्याः परीषहाः । ७-उत्तराध्ययन - दूसरा अध्ययन । ८-(क) अ० चू० पृ०६४ : धुतमोहा विक्किण्णमोहा । मोहो मोहणीयमण्णाणं वा।
(ख) जि० चू० पृ० ११७ : 'धुयमोहा' नाम जितमोहत्ति वुत्तं भवइ ।
(ग) हा० टी० ५० ११६ : 'धुतमोहा' विक्षिप्तमोहा इत्यर्थः, मोहः-अज्ञानम् । ६- आचा०नि० गा० २५१ : जो विहूणइ कम्माई भावऽयं तं वियाणाहि ॥ १०-आ० ६.२४ : आयाण भो! सुस्सूस भो! धूयवायं पवेदइस्सामि ।
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