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दसवेआलियं ( दशवैकालिक )
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अध्ययन ३ : श्लोक १३ टि० ५६-६१
५६. सर्व दुःखों के (सव्वदुक्ख ग ):
धुणियों और टीका में इसके अर्थ सर्व शारीरिक और मानसिक दुःख किया गया है। उत्तराध्ययन के अनुसार जन्म, जरा, रोग और मरण दुःख हैं। यह संसार ही दुःख है जहाँ प्राणी क्लिष्ट होते है। उत्तराध्ययन में एक जगह प्रश्न किया है : "शारीरिक और मानसिक दुःखों से पीड़ित प्राणियों के लिए क्षेम, शिव और अनाबाध स्थान कौन-सा है ?" इसका उत्तर दिया है। "लोकाग्र पर एक ऐसा ध्रुव स्थान है जहाँ जरा, मृत्यु, व्याधि और वेदना नहीं हैं। यही सिद्धि-स्थान या निर्वाण क्षेत्र, शिव और अनाबाध है।"
उत्तराध्ययन में अन्यत्र कहा है - "कर्म ही जन्म और मरण के मूल हैं । जन्म और मरण ये ही दुःख हैं।"
जितेन्द्रिय महर्षि जन्म-मरण के दुःखों के क्षय के लिए प्रयत्न करते हैं अर्थात् उनके आधार-भूत कर्मों के क्षय के लिए प्रयत्न करते हैं । कर्मों के क्षय से सारे दुःख अपने-आप क्षय को प्राप्त हो जाते हैं । ६०. ( पक्कमंति महेसिणो घ):
अगस्त्य पूणि में इसके स्थान पर 'ते वदंति सिर्व गति' यह पाठ है और अध्ययन की समाप्ति इसीसे होती है। उसके अनुसार कुछ आचार्य अग्रिम दो श्लोकों को वृत्तिगत मानते हैं और कुछ आचार्य उन्हें मूल-सूत्रगत मानते हैं। जो उन्हें मूल मानते हैं उनके अनुसार तेरहवें ३ लोक का चतुर्थ चरण 'पक्कमति महेसिणो५ है।
'ते वदंति सिवं गति' का अर्थ है-वे शिवगति को प्राप्त होते हैं। ६१. दुष्कर ( दुक्कराइंक):
टीका के अनुसार औद्देशिकादि के त्याग आदि दुष्कर हैं । श्रामण्य में क्या-क्या दुष्कर हैं इसका गम्भीर निरूपण उत्तराध्ययन
१ - (क) अ. चू० पृ० ६४ : सारीर-माणसाणि अणेगागाराणि सव्वदुक्खाणि ।
(ख) जि० चू० १० ११७ : सत्वदुक्खप्पहीणद्वानाम सवेसि सारीरमाणसाणं दुक्खाणं पहाणाय, खमणनिमित्तति वुत्तं भवइ ।
(ग) हा० टी०प० ११६ : 'सर्वदुःखप्रक्षयार्थ' शारीरमानसाशेषदुःखप्रक्षयनिमित्तम् । २- उत्त० १६.१५ : जम्मं दुक्खं जरा दुक्खं, रोगाणि मरणाणि य ।
अहो दुक्खो हु संसारो. जत्थ कोसन्ति जन्तवो ॥ ३-उत्त० २३.८०-८४ :
सारीरमाणसे दुक्खे, बज्झमाणाण पाणिणं । खेमं सिवमणाबाह, ठाणं किं मन्नसी ? मुणी।। अत्थि एगं धुवं ठाणं, लोगग्गंमि दुरारुहं । जत्थ नत्थि जरा मच्चू, वाहिणो वेयणा तहा ॥ ठाणे य इह के वुत्ते ? केसी गोयममब्बवी। केसिमेवं बुवंतं तु, गोथमो इणमब्बवी ॥ निव्वाणं ति अबाहं ति, सिद्धी लोगग्गमेव य । खेमं सिवं अणाबाहं, जं चरन्ति महेसिणो॥ तं ठाणं सासयं वासं, लोगग्गमि दुरारुहं ।
ज संपत्ता न सोयन्ति, भवोहन्तकरा मुणी॥ ४-उत्त० ३२.७ : कम्मं च जाइमरणस्स मूलं, दुक्खं च जाईमरणं वयन्ति । ५.--अ० चू० पृ०६४ : 'ते वदंति सिवं गति' ..... केसिंचि "सिवं गति वदंती" ति एतेण फलोवदरिसणोवसंहारेण परिसमत्तमिम
मज्झतणं, इति बेमि त्ति सद्दो जं पुव्वभणितं, तेसि वृत्तिगतमिदमुक्कित्तणं सिलोकदुयं । केसिंचि सूत्रम्, जेसि सूत्र, ते पढंति
सव्वदुक्खपहीणट्ठा पक्कमंति महेसिणो। ६-हा० टी०प० ११६ : दुष्कराणिकृत्वौद्देशिकादित्यागादीनि । ७-उत्त०१६.२४-४२।
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