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________________ खुड्डियायारकहा ( क्षुल्लिकाचार-कथा ) ६७ अध्ययन ३ : श्लोक १४-१५ टि० ६२-६५ श्लोक १४ : ६२. दुःसह ( दुस्सहाइख ) : आतापना, आक्रोश, तर्जना, ताड़ना आदि दुःसह्य हैं। उत्तराध्ययन सूत्र में कहा है : “जहां अनेक दुस्सह परीषह प्राप्त होते हैं, वहाँ बहुत सारे कायर लोग खिन्न हो जाते हैं। किन्तु भिक्षु उन्हें प्राप्त होकर व्यथित न बने -जैसे संग्राम-शीर्ष (मोर्चे) पर नागराज व्यथित नहीं होता । ..... मुनि शान्त भाव से उन्हें सहन करे, पूर्वकृत रजों (कर्मों) को क्षीण करे।" ६३. नीरज ( नीरया ) : सांसारिक प्राणी की आत्मा में कर्म-पुद्गलों की रज कुंपी में काजल की तरह भरी हुई होती है। उसे सम्पूर्ण बाहर निकाल-कर्मरहित हो अर्थात् अष्टविध कर्मों का ऐकान्तिक-आत्यन्तिक क्षय कर । 'केइ सिज्झन्ति नीरया' की तुलना उत्तराध्ययन के (१८.५३ के चौथे चरण) सिद्धे हवइ नीरए' के साथ होती है। श्लोक १५: ६४. संयम और तप द्वारा कर्मों का क्षय कर ( खवित्ता पुव्वकम्माई, संजमेण तवेण यक-ख ): जो इसी भव में मोक्ष नहीं पाते वे देवलोक में उत्पन्न होते हैं । वहाँ से पुन: मनुष्य-भव में उत्पन्न होते हैं। मनुष्य-भव में वे संयम और तप द्वारा कर्मों का क्षय करते हैं। कर्मक्षय के दो तरीके हैं- एक नये कर्मों का प्रवेश न होने देना, दूसरा संचित कर्मों का क्षय करना। संयम संबर है। वह नये कर्मों के प्रवेश को-आश्रव को रोक देता है । तप पुराने कर्मों को झाड़ देता है । वह निर्जरा है। जिस प्रकार कोई बड़ा तालाब जल आने के मार्ग का निरोध करने से, जल को उलीचने से, सूर्य के ताप से क्रमशः सूख जाता है उसी प्रकार संयमी पुरुष के पापकर्म आने के मार्ग का निरोध होने से करोड़ों भवों के संचित कर्म तपस्या के द्वारा निर्जीर्ण हो जाते हैं।" इस तरह संयम और तप आत्म-शुद्धि के दो मार्ग हैं। संयम और तप के साधनों से धर्माराधना करने का उल्लेख अन्यत्र भी है। भावार्थ है-मनुष्य-भव प्राप्त कर संयम और तप के द्वारा क्रमिक विकास करता हुआ मनुष्य पूर्व कमों का क्रमश: क्षय करता हुआ उत्तरोत्तर सिद्धि-मार्ग को प्राप्त करता है। ६५. सिद्धि-मार्ग को प्राप्त कर (सिद्धिमग्गमणुप्पत्ताग): अर्थात - ज्ञान, दर्शन, चारित्र और तप रूपी सिद्धि-मार्ग को प्राप्त कर उसकी साधना करते हए । १-(क) अ० चू० पृ० ६४ : 'आतावयंति गिम्हासु' एवमादीणि दुस्सहादीणि [सहेत्तु य] । (ख) जि० चू० पृ० ११७ : आतापनाअकंड्यनाक्रोशतर्जनाताडनाधिसहनादीनि, दूसहाई सहिउँ । (ग) हा० टी० ५० ११६ : दुःसहानि सहित्वाऽऽतापनादीनि । २-उत्त० २१.१७-१८ : परीसहा दुन्विसहा अणेगे, सीयन्ति जत्था बहु कायरा नरा। से तत्थ पत्ते न वहिज्ज भिक्खू, संगामसीसे इव नागराया ॥ अकुक्कुओ तत्थऽहियासएज्जा, रयाई खेवेज्ज पुरेकडाई॥ ३.-(क) जि० चू० पृ० ११७ : णोरया नाम अटुकम्मपगडीविमुक्का भण्णंति । (ख) हा० टी० ५० ११६ : 'नीरजस्का' इति अष्टविधकर्मविप्रमुक्ताः , न तु एकेन्द्रिया इव कर्मयुक्ताः । ४-उत्त० ३०.५-६ : जहा महातलायस्स, सन्निरुद्ध जलागमे । उस्सिचणाए तवणाए, कमेणं सोसणा भवे ॥ एवं तु संजयस्सावि, पावकम्मनिरासवे । भवकोडीसंचियं कम्म, तवसा निज्जरिज्जइ ।। ५- उत्त० १६.७७, २५.४५, २८.३६ । ६-जि० चू० पृ० ११७ : सिद्धिमग्गमणुपत्ता नाम जहा ते तवनियमेहि कम्मखवणटुमन्भुज्जुत्ता अओ ते सिद्धिमग्गमणुपत्ता भण्णंति। ७-(क) अ० चू० पृ. ६४ : सिद्धिमग्गं दरिसण-नाण-चरित्तमत्तं अणुप्पत्ता। (ख) हा० टी० ५० ११६ : 'सिद्धिमार्ग' सम्यग्दर्शनादिलक्षणमनुप्राप्ताः । Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003625
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Dasaveyaliyam Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1974
Total Pages632
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_dashvaikalik
File Size17 MB
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