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दसवेआलियं ( दशवकालिक )
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अध्ययन ३: श्लोक १५ टि०६६
केशी ने गौतम से पूछा : 'लोक में कुमार्ग बहुत हैं, जिन पर चलने वाले लोग भटक जाते हैं। गौतम ! मार्ग में चलते हुए तुम कैसे नहीं भटकते ?.... गौतम ने कहा --- 'मुझे मार्ग और उन्मार्ग-दोनों का ज्ञान है । ..... जो कुप्रवचन के व्रती हैं, वे सब उन्मार्ग की ओर चले जा रहे हैं। जो राग-द्वेष को जीतने वाले जिन ने कहा है, वह सन्मार्ग है, क्योंकि यह सबसे उत्तम मार्ग है। मैं इसी पर चलता हूं।"
उत्तराध्ययन में 'मोक्खमग्गगई'-मोक्षमार्गगति नामक २८ वा अध्याय है । वहाँ जिनाख्यात मोक्षमार्ग---सिद्धिमार्ग को चार कारणों से संयुक्त और ज्ञानदर्शन लक्षणवाला कहा है। वहाँ कहा है : “ज्ञान, दर्शन, चारित्र और तप यह मोक्ष-मार्ग है, ऐसा वरदर्शी अर्हतों ने प्ररूपित किया । 'ज्ञान, दर्शन, चारित्र और तप इस मार्ग को प्राप्त करने वाले जीव सुगति में जाते हैं ।'' अदर्शनी (असम्यक्त्वी) के ज्ञान (सम्यग् ज्ञान) नहीं होता, ज्ञान के बिना चारित्र-गुण नहीं होते । अगुणी व्यक्ति की मुक्ति नहीं होती। अमुक्त का निर्वाण नहीं होता।" जीव ज्ञान से पदार्थों को जानता है, दर्शन से श्रद्धा करता है, चारित्र से निग्रह करता है और तप से शुद्ध होता है।"
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६६. परिनिर्वृत ( परिनिव्वुडा घ) :
'परिनित' का अर्थ है -- जन्म, जरा, मरण, रोग आदि से सर्वथा मुक्त'; भवधारण करने में सहायभूत घाति-कर्मों का सर्व प्रकार से क्षय कर जन्मादि से रहित होना । हरिभद्र सूरि ने मूल पाठ की टीका परिनिर्वान्ति' की है और 'परिनिम्बुड' को पाठान्तर माना है। 'परिनिर्वान्ति' का अर्थ सब प्रकार से सिद्धि को प्राप्त होते हैं-किया है ।
श्लोक १४ व १५ में मुक्ति के क्रम की एक निश्चित प्रक्रिया का उल्लेख है। दुष्कर को करते हुए और दुःसह को सहते हुए श्रमण वर्तमान जन्म में ही यदि सब कर्मों का क्षय कर देता है तब तो वह उमी भव में सिद्धि को प्राप्त कर लेता है। यदि सब कर्मों का क्षय नहीं कर पाता तो देवलोक में उत्पन्न होता है। वहां से च्यवकर वह पुनः मनुष्य-जन्म प्राप्त करता है। सुकुल को प्राप्त करता है। धर्म के साधन उसे सुलभ होते हैं। जिन-प्ररूपित धर्म को पुनः पाता है। इस तरह संयम और तप से कर्मों का क्षय करता हुआ वह सम्पूर्ण सिद्धि-मार्ग--... ज्ञान, दर्शन, चारित्र और तप -...का प्राप्त हो अवशेष कर्मों का क्षय कर जरा-मरग-रोग आदि सर्व प्रकार
१- उत्त० २३.६०-६३ : कुप्पहा बहवो लोए, जेहिं नासन्ति जंतवो।
अद्धाणे कह वट्टन्ते, तं न नस्ससि गोयमा! ॥ कुप्पवयणपासण्डी, सत्वे उम्मग्गपट्टिया ।
सम्मग्गं तु जिणक्खायं, एस मग्गे हि उत्तमे ।। २.-उत्त० २८.१: मोक्खमग्गगई तच्चं, सुणेह जिणभासियं । चउकारणसंजुत्तं,
नाणदसणलक्खणं ॥ ३-उत्त-२८.२,३,३०,३५ : नाणं च दंसण चेव, चरित्तं च तवो तहा।
एस मग्गो ति पन्नत्तो, जिणेहि वरदंसिहि ॥ नाणं च दसणं चेव, चरित्ते च तवो तहा ।। एयंमग्गमणुप्पत्ता, जीवा गच्छन्ति सोग्गई ॥ जासणिस्स नाणं, नाणेण विणा न हुन्ति चरणगुणा । अगुणिस्स नत्थि मोक्खो, नत्थि अमोक्खस्स निव्वाणं । नाणेण जाणई भावे, सणेण य सद्दहे। चरित्तण निगिण्हाइ, तवेण परिसुज्झई ॥
४-जि० चू० पृ० ११७ : परिनिव्वुडा नाम जाइजरामरणरोगादीहिं सव्वप्पगारेणवि विप्पमुक्कत्ति वुत्तं भवइ । ५-- अ० चू० पृ० ६४ : परिणिव्वुता समंता णिवुता सव्वप्पकारं घाति-भवधारणकम्मपरिक्खते । ६-हा० टी०प० ११९ : 'परिनिर्वान्ति' सर्वथा सिद्धि प्राप्नुवन्ति, अन्ये तु पठन्ति 'परिनिव्वुड' ति, तत्रापि प्राकृतशेल्या
छान्दसत्वाच्चायमेव पाठो ज्यायान् ।
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