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दसवेआलियं ( दशवकालिक )
अध्ययन ३ : श्लोक १२ टि० ५२-५६
५२. छहः प्रकार के जीवों के प्रति संयत (छस संजया ख ) :
___ पृथ्वी, अप, वायु, अग्नि, वनस्पति और त्रस प्राणी-ये छह प्रकार के जीव हैं। इनके प्रति मन, वचन और काया से संयत - उपरत' ।
५३. पांचों इन्द्रियों का निग्रह करने वाले ( पंचनिग्गहणाग )
श्रोत्र-इन्द्रिय (कान), चक्षु-इन्द्रिय (आँख), घ्राण-इन्द्रिय (नाक), रसना-इन्द्रिय (जिह्वा) और स्पर्शन-इन्द्रिय (त्वचा)—ये पाँच इन्द्रियाँ हैं । इन पाँच इन्द्रियों का दमन करने वाले-पंचनिग्रही कहलाते हैं ।
५४. धीर ( धीरा "):
धीर और शूर एकार्थक हैं । जो बुद्धिमान् हैं, स्थिर हैं, वे धीर कहलाते हैं । स्थविर अगस्त्यसिंह ने 'वीरा' पाठ माना है, जिसका अर्थ शूर, विक्रान्त होता है।
५५. ऋजुदर्शी ( उज्जुदंसिणो घ):
__ 'उज्जु' का अर्थ संयम और सम है । जो केवल संयम को देखते हैं —संयम का ध्यान रखते हैं तथा जो स्व और पर में समभाव रखते हैं, उन्हें 'उज्जुदं सिणो' कहते हैं । यह जिनदास महत्तर की व्याख्या है । अगस्त्यसिंह स्थविर ने इसके राग-द्वेष रहित, अविग्रहगतिदर्शी और मोक्षमार्गदर्शी अर्थ भी किये हैं।
मोक्ष का सीधा रास्ता संयम है । जो संयम में ऐसा विश्वास रखते हैं उन्हें ऋजुदर्शी कहते हैं ।
श्लोक १२
५६. ग्रीष्म में प्रतिसंलीन रहते हैं ( आयावयंति...पडिसंलीणा क-ग) :
श्रमण की ऋतु-चर्या में तपस्या का प्राधान्य होता है । जिस ऋतु में जो परिस्थिति संयम में बाधा उत्पन्न करे उसे उसके प्रतिकूल आचरण द्वारा जीता जाए। श्रमण की ऋतुचर्या के विधान का आधार यही है । ऋतु के मुख्य विभाग तीन हैं : ग्रीष्म, हेमन्त और वर्षा । ग्रीष्म ऋतु में आतापता लेने का विधान है। श्रमण को ग्रीष्म ऋतु में स्थान, मौन और वीरासन आदि अनेक प्रकार के तप करने चाहिए। यह उनके लिए है जो आतापना न ले सकें और जो आतापना ले सकते हों उन्हें सूर्य के सामने मुंह कर, एक पैर पर दूसरा
१--(क) अ० चू० पृ० ६३ : छसु पुढविकायादिसु त्रिकरणएकभावेण जता संजता ।
(ख) जि० चू० पृ० ११६ : छसु पुढविक्कायाइस सोहणेणं पगारेणं जता संजता।
(ग) हा० टी०प० ११६ : षट्स जीवनिकायेषु पृथिव्यादिषु सामस्त्येन यताः । २--(क) अ० चू० पृ० ६३ : पंच सोतादी ण इंदियाणि णिगिण्हति ।
(ख) जि० चू० पृ० ११६ : पंचण्हं इंदियाणं निग्गहणता ।
(ग) हा० टी० ५० ११६ : निगृह्णन्तीति निग्रहणाः कर्तरि ल्युट पंचानां निग्रहणाः पञ्चनिग्रहणाः, पञ्चानामितीन्द्रियाणाम् । ३---जि० चू० पृ० ११६ : धीरा णाम धीरति वा सूरेत्ति वा एगट्ठा । ४--हा० टी०प०११६ : 'धीरा' बुद्धिमन्तः स्थिरा वा। ५--अ. चू० पृ० ६३ : वीरा सूरा विक्रान्ताः । ६--जि० चू० पृ.० ११६ : उज्जु-संजमो भण्णइ तमेव एगं पासंती त तेण उज्जुदं सणो, अहवा उज्जुत्ति समं भण्णइ सममप्पाणं
परं च पासंतित्ति उज्जुदंसिणो।। ७--अ० चू० पृ० ६३ : उज्जु--संजमो समया वा, उज्जू--रागद्दोसपक्खविरहिता अविग्गहगती वा, उज्जू--मोक्खमग्गो तं पस्सं
तीति उज्जुदंसिणो, एवं च ते भगवंतो गच्छविरहिता उज्जुदंसिणो। ८--हा० टी० ५० ११६ : 'ऋजुदशिन' इति ऋजुर्मोक्षं प्रति ऋजुत्वात्संयमस्तं पश्यन्त्युपादेयतयेति ऋजुशिनः-संयम-प्रतिबद्धाः ।
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