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खुड्डियायारकहा ( क्षुल्लिकाचार-कथा ) ३ अध्ययन ३ : श्लोक ११ टि० ५०-५१
श्लोक ११: ५०. पंचाश्रव का निरोध करनेवाले ( पंचासवपरिन्नाया क ) :
जिनसे आत्मा में कर्मों का प्रवेश होता है उन्हें आश्रव कहते हैं। हिंसा, झूठ, अदत्त, मैथुन और परिग्रह-ये पांच आश्रव हैं - इनसे आत्मा में कर्मों का स्राव होता है।
___आगम में कहा है : "प्राणातिपात, मृषावाद, अदत्तादान, मधुन, परिग्रह और रात्रि-भोजन से जो विरत होता है वह अनाश्रव होता है। साथ ही जो पांच समिति और तीन गुप्तियों से गुप्त है, कषायरहित है, जितेन्द्रिय है, गौरवशुन्य है, निःशल्य है, वह अनाश्रव है।"
आगमों में (१) मिथ्यात्व-मिथ्या दृष्टि, (२) अविरत ... अत्याग, (३) प्रमाद-धर्म के प्रति अरुचि --- अनुत्साह, (४) कषाय - क्रोध, मान, माया, लोभ और (५) योग --हिंसा, झूठ आदि प्रवृतियाँ -- इनको भी आथव कहा है। हिंसा आदि पांच योग आश्रव के भेद हैं।
परिज्ञा दो हैं-ज्ञान-परिज्ञा और प्रत्याख्यान-परिज्ञा । जो पंचाथव के विषय में दोनों परिज्ञाओं से युक्त है-वह पंचाथवपरिज्ञाता कहलाता है। किसी एक वस्तु को जानना ज्ञान-परिज्ञा है। पाप कर्मों को जानकर उन्हें नहीं करना प्रत्याख्यान-परिज्ञा है। निश्चयवक्तव्यता से जो पाप को जानकर पाप नहीं करता वही पाप-कर्म और आत्मा का परिज्ञाता है और जानते हुए भी जो पाप का आचरण करता है, वह पाप का परिज्ञाता नहीं है; क्योंकि वह बालक की तरह अज्ञानी है । बालक अहित को नहीं जानता हुआ अहित में प्रवृत्त होता हुआ एकांत अज्ञानी होता है पर वह तो पाप को जानता हुआ उससे निवृत्त नहीं होता और उसमें अभिरमण करता है, फिर वह अज्ञानी कैसे नहीं कहा जायेगा ? पंचाश्रवपरिज्ञाता- अर्थात् जो पाँच आश्रवों को अच्छी तरह जानकर उन्हें छोड़ चूका हैउनका निरोध कर चुका है। ५१. तीन गुप्तियों से गुप्त ( तिगुत्ता ख ):
मन, वचन और काया---इन तीनों का अच्छी तरह निग्रह करना क्रमशः मन गुप्ति, वचन गुप्ति और काय गुप्ति है। जिसकी आत्मा इन तीन गुप्तियों से रक्षित है, वह त्रिगुप्त कहलाता है।
१-(क) अ० चू०पू०६३: पंच आसवा पाणातिवातादीणि पंच आसवदाराणि ।
(ख) जि० चू० पृ० ११५-६ : 'पंच' त्ति संखा, आसवगहणेण हिंसाईणि पंच कम्मरसासवदाराणि गहियाणि । (ग) हा० टी०प०११८ : 'पञ्चाश्रवा' हिंसादयः । २-उत्त० ३०.२-३ : पाणवहमुसावाया अदत्तमेहुणपरिग्गहा विरओ।
राईभोयणविरओ, जीवो भवइ अणासओ ।। पंचसमिओ तिगुत्तो, अकसाओ जिइन्दिओ।
अगारवो य निस्सल्लो, जीवो होइ अणासवो।। ३-(क) अचू०पू०६३ : परिण्णा दुविहा-जाणणापरिणापच्चक्खाणपरिणा य, जे जाणणापरिगणाए जाणिऊण पच्चक्खाण
परिणाए ठिता ते पंचासवपरिण्णाता। (ख) जि० चू० पृ० ११६ : ताणि दुविहपरिण्णाए परिण्णाताणि, जाणणापरिणाए पच्चक्खाणपरिण ए य ते पंचासव
परिणाया भवंति। (ग) हा० टी० ५० ११८ : 'परिज्ञाता' द्विविधया परिजया-ज्ञपरिज्ञया प्रत्याख्यानपरिजया च परि --समन्तात् ज्ञाता यैस्ते
पंचाश्रवपरिज्ञाताः। ४--जि० चू० पृ० ११६ : तत्थ जाणणापरिण्णा णाम जो जं कि च अत्थं जाणइ सा तस्स जाणणापरिण्णा भव त, जहा पडं जाणं
तस्स पडपरिण्णा भवति, घडं जाणंतस्स घडपरिण्णा भवति, एसा जाणणाजरिणा, पच्चपखणपरिण्णा नाम पावं कम्मं जाणिऊण तस्स पावस्स जं अकरणं सा पच्चक्खाणपरिण्णा भवति, किच--तेण चैवेकेण पावं कम्मं अप्पा य परिणामो भवइ जोपा नाऊण न करेइ, जो पुण जाणित्तावि पावं आयरइ तेण निच्छयवत्तव्वयाए पावं न परिण यं भवइ, कहं ? सो बालो इव अआणमो दन्वो, जहा बालो अहियं अयाणमाणो अहिए पवत्तमाणो एग तेणेव अयाणओ भवइ तहा सोवि पावं जाणिऊण ताओ
पावाओ न णियत्तइ तंमि पावे अभिरमइ । ५--(क) अ० चू० पृ० ६३ : मण-वयण-कायजोगनिग्गहपरा।
(ख) जि० चू० पृ. ११६ : तिविहेण मणवयणकायजोगे सम्म निग्गहपरमा । (ग) हा० टी० ५० ११८ : "त्रिगुप्ता' मनोवाक्कायगुप्तिभिः गुप्ताः ।
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