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________________ दसवेआलियं ( दशवकालिक ) १२ अध्ययन ३ : श्लोक १० टि० ४८-४६ निशीथ ( तृतीय अ० ) में अभ्यङ्ग, उद्वर्तन, प्रक्षालन आदि के लिए मासिक प्रायश्चित्त का विधान किया गया है और भाष्य तथा परम्परा के अनुसार रोग-प्रतिकार के लिए ये विहित भी हैं। सम्भवतः इसमें सभी श्वेताम्बर एक मत हैं। विभूषा के निमित्त अभ्यङ्ग आदि करने वाले श्रमण के लिए चातुर्मासिक प्रायश्चित्त का विधान किया गया है। इस प्रायश्चित्त-भेद और पारंपरिक-अपवाद से जान पड़ता है कि सामान्यतः अभ्यङ्ग आदि निषिद्ध हैं; रोग-प्रतिकार के लिए निषिद्ध नहीं भी हैं और विभूषा के लिए सर्वथा निषिद्ध हैं। इसलिए विभूषा को स्वतन्त्र अनाचार माना गया है। विभूषा ब्रह्मचर्य के लिए घातक है। भगवान् ने कहा है—'ब्रह्मचारी को विभूषानुपाती नहीं होना चाहिए। विभूषा करने वाला स्त्री-जन के द्वारा प्रार्थनीय होता है । स्त्रियों की प्रार्थना पाकर वह ब्रह्मचर्य में संदिग्ध हो जाता है और आखिर में फिसल जाता है । विभूषा-वर्जन ब्रह्मचर्य की रक्षा के लिए नवी बाड़ है और महाचार-कथा का अठारहवाँ वर्ण्य स्थान है (६.६४-६६) । आत्म-गवेषी पुरुष के लिए विभूषा को तालपुट विष कहा है (८.५६) । भगवान् ने कहा है : 'नग्न, मुंडित और दीर्घ रोम, नख वाले ब्रह्मचारी श्रमण के लिए विभूषा का कोई प्रयोजन ही नहीं है ।' विभूषण जो अनाचार है उसमें संप्रसादन, सुन्दर परिधान और अलङ्कार --इन सबका समावेश हो जाता है । श्लोक १०: ४८. संयम में लीन ( संजमम्मि य जुत्ताणं " ): _ 'युक्त' शब्द के संबद्ध, उद्युक्त, सहित, समन्वित आदि अनेक अर्थ होते हैं। गीता (६.८) के शांकर-भाष्य में इसका अर्थ समाहित किया है। हमने इसका अनुवाद 'लीन' किया है। तात्पर्यार्थ में संयम में लीन और समाहित एक ही हैं। जिनदास महत्तर ने 'संजमम्मि य जुत्ताणं' के स्थान में 'संजमं अणुपालंता' ऐसा पाठ स्वीकार किया है। 'संजमं अणुपालेंति'--. ऐसा पाठ भी मिलता है । इसका अर्थ है-संयम का अनुपालन करते हैं, उसकी रक्षा करते हैं। ४६. वायु की तरह मुक्त विहारी ( लहुभूयविहारिणं घ ) : अगस्त्यसिंह स्थविर ने 'लघु' का अर्थ वायु और 'भूत' का अर्थ सदृश किया है। जो वायु की तरह प्रतिबन्ध रहित विचरण करता हो वह 'लघुभूतविहारी' कहलाता है । जिनदास महत्तर और हरिभद्र सूरि भी ऐसा ही अर्थ करते हैं। ___आचाराङ्ग में 'लहुभूयगामी' शब्द मिलता है । वृत्तिकार ने 'लहुभूय' का अर्थ 'मोक्ष' या 'संयम' किया है । उसके अनुसार 'लघुभूतविहारी' का अर्थ मोक्ष के लिए विहार करने वाला या संयम में विचरण करने वाला हो सकता है । १-नि० १५.१०८ : जे भिक्खू विभूसावडियाए अप्पणो कार्य तेल्लेण वा, घएण वा, बसाए वा, णवणीएण वा, अभंगेज्ज वा, मक्खेज्ज वा, मक्खेंतं वा अन्भंगेंतं वा सातिज्जति । २-उत्त० १६.११ : नो विभूसाणुबाई हवइ से निग्गन्थे। तं कह मिति चे? आयरियाह-विभूसावत्तिए विभूसियसरीरे इत्थिजणस्त अभिलप्तणिज्जे हवइ । तओ णं इत्थिजणेणं अभिलसिज्जमाणस्स बम्भचेरे संका वा, कंखा वा, विइगिच्छा वा समुपज्जिज्जा भेदं वा लभेज्जा, उम्मायं वा पाउणिज्जा, दोहकालियं वा रोगायक हवेज्जा, केवलिपन्नताओ धम्माओ भंसेज्जा। तम्हा खलु नो निग्गन्थे विभूसाणुवाई सिया। ३-दश० ६.६५। ४-हा० टी० ५० ११८ । ५.-गीता ६.८ शां० मा० पृ० १७७ : 'युक्त इत्युच्यते योगी'-युक्तः समाहितः । ६ -जि० चू० पृ० ११५ : संजमो पुब्बभणियो, अणुपालयंति णाम तं संजमं रक्खयंति । ७- अ० चू० पृ० ६३ : लहुभूतविहारिणं । लहु जं ण गुरु, स पुण वायुः, लहुभूतो लहुसरिसो विहारो जेसि ते लहुभूतविहारिणो। ८-(क) जि० चू० पृ० ११५ : भूता णाम तुल्ला, लहुभूतो लहु वाऊ तेण तुल्लो विहारो जेसि ते लहभूतविहारिणो। (ख) हा० टी० ५० ११८ : लघुभूतो-वायुः, ततश्च वायुभूतो प्रतिबद्धतया विहारो येषां ते लघुभूतविहारिणः । -आ० ३.४६ : छिदेज्ज सोयं लहुभूयगामी। १०-० ३.४६ : वृत्ति पृ० १४८ : 'लघुभूतो' मोक्षः, संयमो वा तं गन्तुं शीलमस्येति लघुभूतगामी। Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003625
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Dasaveyaliyam Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1974
Total Pages632
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_dashvaikalik
File Size17 MB
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