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खुडियावारका (ल्लिकाचार-कथा )
१ अध्ययन ३ : श्लोक ६ टि० ४६-४७ हेतु माना है'। दंतधावन की विधि इस प्रकार बताई गई है—अमुक वृक्ष की छाल सहित टहनी को ले। उसका आठ अंगुल लम्बा टुकड़ा करे । दाँतों से उसका अग्रभाग कूंचे और कूंचा हो जाने पर दन्तकाष्ठ के उस अग्रभाग से दांतों को मलकर उन्हें साफ करें। इस तरह दन्तधावन का अर्थ दन्तकाष्ठ से दांतों को साफ करना होता है और उसका वही अर्थ है जो अगस्त्य सिंह ने दन्तप्रधावना का किया है । वैदिक शास्त्रों में दन्तधावन और दन्तप्रक्षालन के अर्थों में अन्तर मालूम देता है। केवल जल से मुख शुद्धि करना प्रक्षालन है और दन्तकाष्ठ से दांत साफ करना दन्तधावन है। नदी में या घर पर दन्तप्रक्षालन करने पर मंत्र का उच्चारण नहीं करना पड़ता पर दन्तधावन करने पर मंत्रोच्चारण करना पड़ता है "हे वनस्पति ! मुझे लम्बी आयु, बल, यश, वर्चस्, सन्तान, पशु, धन, ब्रह्म (वेद), प्रज्ञा और मेधा प्रदान कर ।"
प्रतिपदा पर्व तिथियों (पूर्णिमा, अष्टमी, चतुर्दशी), छठ और नवमी के दिनों में दानपति कहा है। आद दिन यज्ञ दिन नियम दिन, उपवास या व्रत के दिनों में भी इसकी मनाही है । इसीसे स्पष्ट है कि दन्तप्रधावन का हिन्दू शास्त्रों में भी धार्मिक क्रिया के रूप में विधान नहीं है । शुद्धि की क्रिया के रूप में ही उसका स्थान है ।
४६. गात्र प्रभ्यङ्ग ( गायाभंग प ) :
इसका अर्थ है - शरीर के तेलादि की मालिश करना। निशीथ से पता चलता है कि उस समय गात्राभ्यङ्ग तैल, घृत, वसा चर्बी और नवनीत से किया जाता था ।
४७. विभूषण (विभूसणे ) :
सुन्दर परिधान, अलङ्कार और शरोर की साज-सज्जा, नख और केश काटना, बाल संवारना आदि विभूषा है ।
चरक में इसे 'संप्रसादन' कहा है। केश, श्मश्रु (दाढ़ी, मूंछ ) तथा नखों को काटने से पुष्टि, दृष्यता और आयु की वृद्धि होती है तथा पुरुष पवित्र एवं सुन्दर रूप वाला हो जाता है" । 'संप्रसाधनम्' पाठ स्वीकार करने पर केश आदि को कटवाने से तथा कंघी देने से उपर्युक्त लाभ होते हैं ।
१-आह्निकप्रकाश पृ० १२१ : अत्र संध्यायां स्नाने च दन्तधावनस्य नाङ्गत्वम् इति वृद्धशातातपवचनेन स्वतंत्रस्यैव शुद्धिहेतुतयाभिधानात्।
२ गोल १.१३
नारयायुक्तवा पारितम् । सत्वचं दंतकाष्ठं स्यात्तदग्रेण प्रधावयेत् ॥
३ (क) गोभिलस्मृति १.१३७ दन्तात् प्रात्य नद्यादौ गृहे चेदमन्त्रवत्। (ख) वही १.१३६ : परिजप्य च मन्त्रेण भक्षयेद्दन्तधावनम् ॥
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- ( क ) गोभिलस्मृति १.१३७ ।
(ख) वही १.१३६ ।
(ग) वही १.१४० : आयुर्बलं यशो वर्चः प्रजां पशून् वसूनि च । ब्रह्म प्रज्ञां च मेधां च त्वं नो देहि वनस्पते ! ||
२ (क) लघुहारीत ११०१०३ (ख) नृसिंह पुराण ५८.५०-५२ :
प्रतिपत्पर्व षष्ठीसु नवम्यां चैव सत्तमाः । दन्तानां काष्ठसंयोग हत्या सप्तमं कुलम् ॥ अभावे दन्तकाष्ठानां प्रतिषिद्धदिनेषु च । अपां द्वादशगण्डूषैर्मुखशुद्धिं समाचरेत् ॥
६- स्मृति अर्थसार पृ० २५ ।
७
- (क) अ० चू० पृ० ६२ : गायभंगो सरीरब्भंगणमहणाईणि ।
(ख) हा० डी० प० ११० गात्रान्यङ्गस्तैलादिना ।
८.
- नि० ३.२४ : जे भिक्खू अप्पणोकाए तेल्लेण वा घएण वा, बसाए वा णवणीएण वा अब्भंगेज्ज वा, मक्खेज्ज वा अब्भंत वा मक्तं वा सातिज्जति ।
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६- अ० चू० पृ० ६२ विभूसणं अलंकरणं ।
१० - चरक० सू० ५.६६ : पौष्टिकं वृष्यमायुष्यं शुचि रूपविराजनम् ।
hasterखादीनां कल्पनं संप्रसादनम् ॥
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