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दसवेआलियं ( दशवकालिक )
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अध्ययन ३: श्लोकह टि०४५ अर्थ नहीं निकलता। हरिभद्र सूरि ने अंगुली और काष्ठ का भेद कर दोनों अनाचारों के अर्थों के पार्थक्य को रखा है, वह ठीक प्रतीत होता है।
सूत्रकृताङ्ग में 'दंतपक्खालणं' शब्द मिलता है। जिससे दांतों का प्रक्षालन किया जाता है-दांत मल-रहित किये जाते हैं, उस काष्ठ को दंत-प्रक्षालन कहते हैं । कदम्ब काष्ठादि से दांतों को साफ करना भी दंत-प्रक्षालन है।
शाब्दिक दृष्टि से विचार किया जाय तो दंतप्रधावन के अर्थ, दंत-प्रक्षालन की तरह, दतौन और दांतों को धोना दोनों हो सकते हैं जब कि दंतवन का अर्थ दतौन ही होता है। दोनों अनाचारों के अर्थ-पार्थक्य की दृष्टि से यहाँ 'दंतप्रधावन' का अर्थ दांतों को धोना और 'दंतवन' का अर्थ दातुन करना किया है।
सूत्रकृताङ्ग में कहा है : 'णो दंतपक्खालणेणं दंत पक्खालेज्जा' । शीलाङ्कसूरि ने इसका अथ किया है - मुनि कदम्ब आदि के प्रक्षालन -दतौन से दांतों का प्रक्षालन न करे- उन्हें न धोए। यहाँ 'प्रक्षालन' शब्द के दोनों अर्थों का एक साथ प्रयोग है । यह दोनों अनाचारों के अर्थ को समाविष्ट करता है।
अनाचारों की प्रायश्चित्त विधि निशीथ सूत्र में मिलती है। वहाँ दांतों से सम्बन्ध रखने वाले तीन सूत्र हैं - (१) जो भिक्षु विभूषा के लिए अपने दांतों को एक दिन या प्रतिदिन घिसता है, वह दोष का भागी होता है ।
(२) जो भिक्षु विभूषा के लिए अपने दांतों का एक दिन या प्रतिदिन प्रक्षालन करता है, या प्रधावन करता है, वह दोष का भागी होता है।
(३) जो भिक्षु विभूषा के लिए अपने दाँतों के फूंक मारता है या रंगता है, वह दोष का भागी होता है।
इससे प्रकट है कि किसी एक दिन या प्रतिदिन दंतमंजन करना, दांतों को धोना, दंतवन करना, फूंक मारना और रंगना ....ये सब साधु के लिए निषिद्ध कार्य हैं। इन कार्यों को करनेवाला साधु प्रायश्चित्त का भागी होता है।
प्रो. अभ्यंकर ने 'दंतमण्ण' पाठ मान उसका अर्थ दांतों को रंगना किया है। यदि ऐसा पाठ हो तो उसकी आर्थिक तुलना निशीय के दन्त-राग से हो सकती है।
आचार्य व टकेर ने प्रक्षालन, घर्षण आदि सारी क्रियाओं का 'दंतमण' शब्द से संग्रह किया है.---अंगुली, नख, अवले खिनी (दतीन) काली (तृण विशेष), पैनी, कंकणी, वृक्ष की छाल (वल्कल) आदि से दांत के मैल को शुद्ध नहीं करना, यह इन्द्रिय-संयम की रक्षा करने वाला 'अदंतमन' मूल गुणव्रत है।
बौद्ध-भिक्षु पहले दतवन नहीं करते थे। दतवन करने से - (१) आँखों को लाभ होता है, (२) सुख में दुर्गन्ध नहीं होती, (३) रस वाहिनी नालियाँ शुद्ध होती हैं, (४) कफ और पित्त भोजन से नहीं लिपटते, (५) भोजन में रुचि होती है ये पाँच गुण बता बुद्ध ने भिक्षुओं को दतवन की अनुमति दी। भिक्षु लम्बी दतवन करते थे और उसीसे श्रामणेरों को पीटते थे । 'दुक्कट' का दोष बता बुद्ध ने उत्कृष्ट में आठ अंगुल तक के दतवन की और जघन्य में चार अंगुल के दतवन की अनुमति दी।
__वैदिक धर्म-शास्त्रों में ब्रह्मचारी के लिए दन्तधावन वर्जित है । यतियों के लिए दन्तधावन का वैसा ही विधान रहा है जैसा कि गहस्थों के लिए। वहाँ दन्तधावन को स्नान के पहले रक्खा है और उसे स्नान और सन्ध्या का अङ्ग न मान केवल मुख-शुद्धि का स्वतंत्र
१-०१.६.१३ : गंधमल्लसिणाणं च, दंतपक्खालणं तहा।
परिग्गहित्थिकम्मं च, त विज्ज ! परिजाणिया ॥ २-० १.४.२.११ टी०प०११८ : दन्ता प्रक्षाल्यन्ते-अपगतमलाः क्रियन्ते येन तद्दन्तप्रक्षालनं दन्तकाष्ठम् । ३- सू० १.६.१३ टी० ५० १८० : ‘दन्तप्रक्षालनं' कदम्बकाष्ठादिना। ४--सू० २.१.१५ टी० प० २६६ : नो दन्तप्रक्षालनेन कदम्बादि काष्ठेन दन्तान् प्रक्षालयेत् । ५--नि० १५.१३०-३१ : जे भिक्खू विभूसावडियाए अप्पणो दंते आघंसेज्ज वा पघंसेज्ज वा,"सातिज्जति ।
जे भिक्खू विभूसावडियाए अपणो दंते उच्छोलेज्ज वा पधोवेज्ज वा, सातिज्जति ।
जे भिक्खू विभूसावडियाए अप्पणो दंते फूमेज्ज वा रएज्ज वा, ''सातिज्जति । ६--मूलाचार मूलगुणाधिकार ३३ : अंगुलिणहावलेहिणीकालीहि, पासाण-छल्लियादोहिं ।
दंतमलासोहणयं, संजमगुत्ती अदंतमणं ॥ ७-विनयपिटक : चुल्लवग्ग ५.५.२ पृ० ४४४ । ८-वशिष्ठ ७.१५ : खट्वाशयनदन्तधावनप्रक्षालनाञ्जनाभ्यञ्जनोपानच्छत्रवर्जी। E-History of Dharmasastra vol. II part II. p. 964 : Ascctics have to perform saucha, brushing the
teeth, bath, just as house holders have to do.
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