________________
दसवेआलियं ( दशवकालिक )
अध्ययन २ : श्लोक ६ टि० २६-२७ दुःख का मूल कामना है। राग-द्वेष कामना की उत्पत्ति के आन्तरिक हेतु हैं। पदार्थ-समूह, देश, काल और सौकुमार्य ये उसकी उत्पत्ति के बाहरी हेतु हैं।
काम-विजय ही सुख है । इसी दृष्टि से कहा है --- 'कामना को क्रांत कर, दुःख अपने आप क्रांत होगा।' २६. संसार (इहलोक और परलोक) में सुखी होगा ( सुही होहिसि संपराए)
'संपराय' शब्द के तीन अर्थ हैं -संसार, परलोक, उत्तरकाल ... भविष्य' ।
'संसार में सुखी होगा'... - इसका अर्थ है : संसार दुःख-बहुल है। पर यदि तू चित्त-समाधि प्राप्त करने के उपर्युक्त उपायों को करता रहेगा तो मुक्ति पाने के पूर्व यहाँ सुखी रहेगा। भावार्थ है --जब तक मुक्ति प्राप्त नहीं होती तब तक प्राणी को संसार में जन्म-जन्मान्तर करते रहना पड़ता है। इन जन्म-जन्मान्तरों में तू देव और मनुष्य योनि को प्राप्त करता हुआ उनमें सुखी रहेगा।
चूर्णिकारों के अनुसार 'संपराय' शब्द का दूसरा अर्थ 'संग्राम' होता है। टीकाकार हरिभद्र सूरि ने मतान्तर के रूप में इसका उल्लेख किया है। यह अर्थ ग्रहण करने से तात्पर्य होगा-परीपह और उपसर्ग रूपी संग्राम में सुखी होगा—प्रसन्न-मन रह सकेगा। अगर तु इन उपायों को करता रहेगा, राग-द्वेष में मध्यस्थभाव प्राप्त करेगा तो जब कभी विकट संकट उपस्थित होगा तब तू उसमें विजयी हो सुखी रह सकेगा।
मोहोदय से मनुष्य विचलित हो जाता है। उस समय वह आत्मा की ओर ध्यान न दे विषय-सुख की ओर दौड़ने लगता है । ऐसे संकट के समय संयम में पुनः स्थिर होने के जो उपाय हैं उन्हीं का निर्देश इस श्लोक में है। जो इन उपायों को अपनाता है वह आत्म-संग्राम में विजयी हो सुखी होता है।
श्लोक ६:
२७. अगंधन कुल में उत्पन्न सर्प ( कले जाया अगन्धणे घ):
सर्प दो प्रकार के होते हैं-गन्धन और अगन्धन । गन्धन जाति के सर्प वे हैं जो डसने के बाद मन्त्र से आकृष्ट किये जाने पर व्रण से मुंह लगाकर विप को वापस पी लेते हैं। अगन्धन जाति के सर्प प्राण गवां देना पसन्द करते हैं पर छोड़े हए विष को वापस नहीं पाते । अगन्धन सर्प की कथा 'विसवन्त जातक' ( क्रमांक ६६ ) में मिलती है । उसका सार इस प्रकार है :
१- (क) अ० चू० पृ० ४५ : संपराओ संसारो।
(ख) जि. चू० पृ० ६८ : संपरातो-संसारो भण्णइ। (ग) कठोपनिषद् शांकरभाष्य : १.२.६ : सम्पर ईयत इति सम्पराय: परलोकस्तत्प्राप्तिप्रयोजनः साधनविशेषः शास्त्रीयः
साम्परायः । (घ) हलायुध कोष। २.---(क) अ० चू० पृ० ४५ : संपरायेवि दुषखबहुले देवमणुस्सेसु सुही भविस्ससि ।
(ख) जि० चू० पृ० ८६ : जाव ण परिणवाहिसि ताव दुक्खाउले संसारे सुही देभमणुएसु भविस्ससि ।
(ग) हा० टी० प० ६५ : यावदपवर्ग न प्राप्स्यसि तावत्सुखी भविष्यसि । ३--(क) अ० चू० पृ० ४५ : जुद्धं वा संपराओ वावीसपरीसहोवसग्गजुद्धलद्धविजतो परमसुही भविस्ससि । (ख) जि० चू० पृ० ८६ : जुतं भण्णइ, जवा रागदोसेतु मज्झत्यो भविस्ससि तओ (जिय) परीसहसंपराओ सुही
भविस्ससित्ति। (ग) हा० टी० ५० ६५ : संपराये' परीसहोपसर्गसंग्राम इत्यन्ये । ४ – (क) अ० चू० पृ० ४५ : गंधणा अगंधणा प सप्पा, गंधगा होणा, अगंधणा उत्तमा, ते डंकातो विसं न पिबंति मरता वि । (ख) जि. चू० पृ०८७: तस्य नागाणं दो जातीयो-गंधणा य अगंधणा य, तत्थ गंधणा नाम जे डसिऊण गया मतेहि
आगच्छिया तमेव विसं वणमुहट्ठिया पुगो आवियंति ते, अगंधणा णाम मरणं ववसति ण य वंतयं आवियंति । (ग) हा० टी०प०६५।
Jain Education Intemational
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org