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________________ ३१ सामण्णपुव्वयं ( श्रामण्यपूर्वक ) अध्ययन २ : श्लोक ६ टि०२८-२६ ___खाजा खाने के दिनों में, मनुष्य संघ के लिए बहुत-सा खाजा लेकर आये। बहुत-सा (खाजा) बाकी बच गया। स्थविर से लोग कहने लगे,--"भन्ते ! जो भिक्षु गांव में गये हैं, उनका (हिस्सा) भी ले लें।" उस समय स्थविर का (एक) बालक-शिष्य गांव में गया था। (लोगों ने उसका हिस्सा स्थविर को दे दिया। स्थविर ने जब उसे खा लिया, तो वह लड़का आया। स्थविर ने उससे कहा--"आयुष्मान् ! मैंने तेरे लिए रखा हुआ खाद्य खा लिया।" वह बोला...." भन्ते ! मधुर चीज किसे अप्रिय लगती है ?" महास्थविर को खेद हुआ। उन्होंने निश्चय किया ..."अब इसके बाद (कभी) खाजा न खायेंगे।" यह बात भिक्षु संघ में प्रकट हो गई। इसकी चर्चा हो रही थी। शास्ता ने पूछा--"भिक्षुओ! क्या बात कर रहे हो ?' भिओं के कहने पर शास्ता ने कहा-"भिक्षुओ ! एक बार छोड़ी हुई चीज को सारिपुत्र प्राण छोड़ने पर भी ग्रहण नहीं करता।" ऐसा कह कर शास्ता ने पूर्व-जन्म की कथा कही--- पूर्व समय में वाराणसी में (राजा) ब्रह्मदत्त के राज्य करने के समय बोधिसत्त्व एक विप-वैद्य कुल में उत्पन्न हो, वैद्यक से जीविका चलाते थे। एक बार एक देहाती को सांप ने डस लिया। उसके रिश्तेदार देर न कर, जल्दी से वैद्य को बुला लाये । वैद्य ने पूछा --- 'दवा के जोर से विष को दूर करूं ? अथवा जिस साँप ने डसा है, उसे बुला कर, उसी के उसे हुए स्थान से विष निकलवाऊँ ?' लोगों ने कहा- 'सर्प को बुला कर विष निकलवाओ।' वैद्य ने सांप को खुला कर पूछा ...'इसे तुने डसा है ?' 'हां ! मैंने ही' सांग ने उत्तर दिया। 'अपने इसे हुए स्थान से तू ही विष को निकाल ।' सांग ने उत्तर दिया- 'मैंने एक बार छोड़े हुए विष को फिर कभी ग्रहण नहीं किया; सो मैं अपने छोड़े हुए विष को नहीं निकालूंगा।' वैद्य ने लकड़ियाँ मंगवा कर आग बना कर कहा 'यदि ! अपने विप को नहीं निकालता तो इस आग में प्रवेश कर।' सर्प बोला : 'आग में प्रविष्ट हो जाऊँगा, लेकिन एक बार छोड़े हुए अपने विष को फिर नहीं चाहँगा।' यह कह कर उसने यह गाथा कही : धिरत्थु तं विसं दन्तं, यमहं जीवितकारणा । वन्तं पच्चावमिस्सामि, मतम्मे जीविता वरं ॥' धिक्कार है उस जीवन को, जिस जीवन की रक्षा के लिए एक बार उगल कर मैं फिर निगलू। ऐसे जीवन से मरना अच्छा है' यह कहकर सर्प अग्नि में प्रविष्ट होने के लिए तैयार हुआ। वैद्य ने उसे रोक, रोगी को औषधि से निरोग कर दिया। फिर सर्प को सदाचारी बना, 'अब से किसी को दुःख न देना' यह कह कर छोड़ दिया। "पूर्व जन्म का सर्प अब का सारिपुत्र है। एक बार छोड़ी हुई चीज को सारिपुत्र किसी प्रकार, प्राण छोड़ने पर भी, ग्रहण नहीं करता'--इस सम्बन्ध में यह उसके पूर्व जन्म की कथा है।" २८. विकराल ( दुरासयं ख): चणिकार ने 'दुरासयं' शब्द का अर्थ 'दहन-समर्थ' किया है। इसके अनुसार जिसका संयोग सहन करना दुष्कर हो वह दुरासद है। टीकाकार ने इसका अर्थ 'दुर्गम' किया है। जिसके समीप जाना कठिन हो उसे दुरासद कहा है। विकराल' शब्द दोनों अर्थों की भावना को अभिव्यक्त करता है। २६. धूमकेतु (धूमकेउं ख ): खुणि के अनुसार यह 'जोई'-ज्योति-अग्नि का ही दूसरा नाम है । धूम ही जिसका केतु -चिन्ह हो उसको धूमकेतु कहते हैं और वह अग्नि ही होती है। टीका के अनुसार यह 'ज्योति' शब्द के विशेषण के रूा में प्रयुक्त है और इसका अर्थ है : जो ज्योति, उल्कादि रूप नहीं पर धूमकेतु, धूमचिन्ह, धूमध्वज वाली है अर्थात् जिससे धुआँ निकल रहा है वह अग्नि । १-जातक प्र० खं० प० ४०४ । २-जातक प्र० खं० पृ० ४०२ से संक्षिप्त । ३ - जि० चू० पृ० ८७ : दुरासयो नाम डहणसमत्थत्तणं, दुक्खं तस्स संजोगो सहिज्जइ दुरासओ तेण । ४-हा० टी० ५० ६५ : 'दुरासदं' दुखेनासाद्यतेऽभिभूयत इति दुरासदस्तं, दुरभिभवमित्यर्थः । ५-जि० चू० पृ० ८७ : जोती अग्गी भण्णइ, धूमो तस्सेव परियायो, केऊ उस्सओ विधं वा, सो धूमे केतू जस्स भवइ धूमकेऊ । ६-हा० टी०प० ६५ : अग्नि 'धूमकेतुं' धूमचिह्न धूमध्वजं नोल्कादिरूपम् । Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003625
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Dasaveyaliyam Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1974
Total Pages632
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_dashvaikalik
File Size17 MB
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