________________
andआलियं ( दशवेकालिक )
३२
३०. वापस पीने की
नहीं करते ( नेच्छति वन्यं भोत
)
प्राण भले ही चले जांय पर अगन्धन कुल में उत्पन्न सर्व विष को वापस नहीं पीता । इस बात का सहारा ले राजीमती कहती है : साधु को सोचना चाहिए- अविरत होने पर तथा धर्म को नहीं जानने पर भी केवल कुछ का अवलम्बन ले तिर्वञ्च अगरधन सर्प अपने प्राण देने को तैयार हो जाता है पर वमन पीने जैसा घृणित काम नहीं करता। हम तो मनुष्य हैं, जिन धर्म को जानते हैं फिर भला क्या हमें जाति-कुल के स्वाभिमान को त्याग, परित्यक्त भोगों का पुनः कायरतापूर्वक आसेवन करना चाहिए? हम दारुण दुःख के हेतुत्यक्तभोगों का फिर से सेवन कैसे कर सकते हैं ?
३१. श्लोक ७ से ११ :
इनकी तुलना के लिए देखिए - 'उत्तराध्ययन' २२ । ४२, ४३, ४४, ४६, ४६ ।
इलोक ७:
३२. हे यशःकामिन्! ( जसोकामी ) :
क
'णि के अनुसार 'जसो कामी' शब्द का अर्थ है हे क्षत्रिय ! हरिभद्र सूरि ने इस शब्द को रोप में क्षत्रिय के आमंत्रण का सूचक कहा है। डा० याँकोवी ने इसी कारण इसका अर्थ famous knight' किया है।
अकार का प्रश्लेष मानने पर 'धिरत्थु तेऽजसो कामी' ऐसा पाठ बनता है । उस हालत में हे अयशः कामिन् ! ऐसा सम्बोधन बनेगा। 'यश' शब्द का अर्थ संयम भी होता है । अतः अर्थ होगा है असंयम के कामी ! धिक्कार है तुझे । इस श्लोक के पहले चरण का अर्थ इस प्रकार भी किया जा सकता है है कामी ! तेरे यश को धिवकार है ।
अध्ययन २ श्लोक ७ टि० ३०-३४ :
३३. क्षणभंगुर जीवन के लिए ( जो जीविकारभा):
जिनदास महत्तर ने इसका अर्थ 'कुशाग्र पर स्थित जल-बिन्दु के समान चंचल जीवन के लिए और हरिभद्रसूरि ने 'असंयमी जीवन के लिए ऐसा किया है।
३४. इससे तो तेरा मरना श्रेय है ! (सेयं ते मरणं भवे घ ) :
जैसे जीने के लिए वमन की हुई वस्तु का पुनः भोजन करने से गरना अधिक गौरवपूर्ण होता है वैसे ही परित्यक्त भोगों को भांगने की अपेक्षा मरना ही श्रेयस्कर है ।
१ - जि० चू० पृ० ८७ : साहुणावि चितेयत्वं जड़ णामाविरएण होऊण धम्मं अयाणमाणेण कुलमवलंबतेण व जीवियं परिच्चत्तं ण य वन्तमावतं, किमंगपुण मणुस्सेण जिणववण जाणमाणेण जातिकुलमत्तणो अणुगणिते ? तहा करणीयं जेण सद्दण दौसेण भइ अवि-मरण अव सोहि कुन्छा
२- हा० टी० प० ६५ यदि तावत्तिर्यञ्चोऽप्यभिमानमात्रादपि जीवितं परित्यजन्ति न च वान्तं भुञ्जते तत्कथमहं जिनवचनामिलो विपाकान् विषयान् वान्तान् भी?
३-जि०
० चु० पृ० ८८: जसोकामिणो खत्तिया भण्णंति ।
४ -- हा० टी० प० ६६ : हे यशस्कामिन्निति सासूयं क्षत्रियामन्त्रणम् ।
The Uttaradhyayana Sutra P. 118
६-- (क) जि० चू० पृ० ८८ : अहवा धिरत्थु ते अयसोकामी, गंधलाघवत्थं अकारस्स लोवं काऊण एवं पढिज्जइ 'धिरत्थु तेजसो
कामी' ।
७
(ख) हा० टी० प० ६६ : अथवा अकारप्रश्लेषादयशस्कामिन् !
(क) हा० टी० प० १८८: जसं सारखखमध्पणो (द० ५.२.३६ ) - यशः शब्देन संयमोऽभिधीयते ।
(ख) भगवती श० ४१ उ० १ : तेण भंते जीवा ! कि आयजसेण उववज्जंति ?.. • आत्मनः सम्बन्धि यशो यशो हेतुत्वाद् यश: -संयमः आत्मयशस्तेन ।
5-foto
० चू० पृ० ८८ : जो तुमं इमस्स कुसग्गजलबदुचंचलस्स जीवियस्स अट्ठाए । - हा० डी० प० १६ जीवितकारणात्
ततः ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org