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सामण्णपुव्वयं ( श्रामण्यपूर्वक )
अध्ययन २: श्लोक ८ टि० ३५-३६ भूखा मनुष्य कष्ट भले ही पाये पर धिक्कारा नहीं जा सकता; पर वमन को खाने वाला जीते-जी धिक्कारा जाता है। जो शील-मंग करने की अपेक्षा मृत्यु को वरण करता है वह एक बार ही मृत्यु का कष्ट अनुभव करता है, पर अपने गौरव और धर्म की रक्षा कर लेता है । जो परित्यक्त भोगों का पुन: आसेवन करता है वह अनेक बार धिक्कारा जा कर बार-बार मृत्यु का अनुभव करता है। इतना ही नहीं वह अनादि और दीर्घ संसार-अटवी में नाना योनियों में जन्म-मरण करता हुआ बार बार कष्ट पाता है। अत: मर्यादा का उल्लंघन करने की अपेक्षा तो मरना थेयस्कर होता है।
श्लोक ८ : ३५. मैं भोजराज की पुत्री ( राजीमती ) हूँ ( अह च भोयरायस्य... क ):
राजीमती ने रथने मि से कहा....मैं भोजराज की संतान हैं और तुम अन्धक-वृष्णि की सन्तान हो। यहाँ ‘भोज' और 'अन्धकवृष्णि' शब्द कुल के वाचक हैं।
हरिभद्र सुरि ने 'भोय' का संस्कृत रूप 'भोग' किया है। शान्त्याचार्य ने इसका रूप 'भोज' दिया है । महाभारत और कौटिलीय अर्थशास्त्र में भोज' शब्द का प्रयोग मिलता है। महाभारत और विष्णुपुराण के अनुसार 'भोज' यादवों का एक विभाग है। कृष्ण जिस संघ-राज्य का नेतृत्व करते थे, उसमें यादव, कुकुर, भोज और अन्धक-वृष्णि सम्मिलित थे । जैनागमों के अनुसार कृष्ण उग्रसेन आदि सोलह हजार राजन्यों का आधिपत्य करते थे । अन्धक-वृष्णियों के संघ-राज्य का उल्लेख पाणिनि ने भी किया है। वह वैध-राज्य था। अन्धक और वृष्णि ये दो राजनैतिक दल यहाँ का शासन चलाते थे। इस प्रकार की शासन-प्रणाली को विरुद्ध-राज्य कहा जाता रहा।
___ अन्धकों के नेता अवर थे। उनके दल के सदस्यों को 'अक्रूरवर्दी' और 'अक्रूरवर्गीण' कहा गया है । वृष्णियों के नेता वासुदेव थे । उनके दल के सदस्यों को 'वासुदेववर्म्य' और 'वासुदेववर्गीण' कहा गया है। भोजों के नेता उग्रसेन थे। ३६. कुल में गन्धन सर्प न हों ( मा कुले गंधणा होमो ग ) :
राजीमती कहती है - हम दोनों ही महाकुल में उत्पन्न हैं। जिस तरह गंधन सर्प छोड़े हुए विष को वापस पी लेते हैं, उस तरह से हम परित्यक्त भोगों को पुन: सेवन करनेवाले न हों।
जिनदास महत्तर ने ‘मा कुले गंधणा होमो' के स्थान में 'मा कुलगंधिणो होमो' ऐसा विकल्प पाठ बतला कर 'कुलगंधिणो' का अर्थ कुल-पूतना किया है अर्थात् कुल में पूतना की तरह कलंक लगानेवाले न हों ।
१- जि० चू० पृ० ८७ : अणाईए अणवदग्गे दोहमद्धे संसारकतारे तासु तासु जाईसु बहूणि जम्मणमरणाणि पावंति। २-हा० टी०प० ६६ : उत्क्रान्तमर्यादस्य 'श्रेयस्ते मरणं भवेत् शोभनतरं तव मरणं, न पुनरिदमकार्यासेवनमिति । ३-जि० चू० पु०८८ : भोगा खत्तियाण जातिविसेसो भण्णइ।
"तुमं च तस्स तारिसस्स · अंधयवण्हिणो कुले पसूओ समुद्दविजयस्स पुत्तो। ४-हा० टी०प०६७; उत्त० : २२.४३ वृ० । ५.-म० भा० शान्तिपर्व : ५१.१४ : अक्रूरभोजप्रभवाः । ६--कौ० अ० १.६.६ : यथा दाण्डक्यो नाम भोज: कामाद् ब्राह्मणकन्यामभिगम्यमानः सबन्धुराष्ट्रो विननाश । ७-म० भा० सभापर्व : १४.३२। ८- विष्णुपुराण : ४.१३.७ । 8-म० भा० शान्तिपर्व : ८१.२६ : यादवाः कुकुरा भोजाः, सर्वे चान्धकवृष्णपः ।
त्वय्यायत्ता महाबाहो, लोका लोकेश्वराश्च ये॥ १०--अंत० १.१ : तत्थ णं बारवई णयरीए कण्हे नामं वासुदेवे राया परिवसइ ।'बलदेव-पामोक्खाण पंचण्हं महावीराण, पज्जुण्ण.
पामोक्खाण अधुट्ठाण कुमारकोडीण "छप्पण्णाए बलवयसाहस्सीणां,उग्गसेण-पामोक्खाणं सोलसण्हं रायसाहस्सीण....
आहेवच्च जाव पालेमाणे विहरइ । ११- अष्टाध्यायी (पाणिनि) : ६.२.३४ १२-आ० चू० ३.११ १३-कात्यायनकृत पाणिनि का वार्तिक : ४.२.१०४ १४-जि० चू०पृ०८६ : अहवा कुलगंधिणो कुलपूयणा मा भवामो ।
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