SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 80
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सामण्णपुव्वयं ( श्रामण्यपूर्वक ) २६ अध्ययन २ : श्लोक ५ टि० २१-२५ श्लोक ५: २१. श्लोक ५: इस श्लोक में विषयों को जीतने और भाव-समाधि प्राप्त करने के उपायों का संक्षिप्त विवरण है। इसमें निम्न उपाय बताये हैं--- (१) आतापना, (२) सौकुमार्य का त्याग, (३) द्वेष का उच्छेद और (४) राग का बिनयन । मथुन की उत्पत्ति चार कारणों से मानी गयी है'---(१) मांस-शोणित का उपचय-उसकी अधिकता, (२) मोहनीय कर्म का उदय, (३) मति-तद्विषयक बुद्धि और (४) तद्विषयक उपयोग । यहाँ इन सबसे बचने के उपाय बतलाये हैं। २२. अपने को तरा ( आयावयाही क ): मन का निग्रह उपचित शरीर से संभव नहीं होता । अतः सर्वप्रथम कायवल-निग्रह का उपाय बताया गया है।---मांस और शोणित के उगचा को घटाने का मार्ग दिखाया गया है। सर्दी-गर्मी में तितिक्षा रखना, शीत-काल में आवरण रहित होकर शीत सहना, ग्रीष्म-काल में सूर्याभिमुख होकर गर्मी सहना- यह सब आतापना तप है। उपलक्षण रूप से अन्य तप करने का भाव भी उस में समाया हुआ है । इसीलिए 'आयावयाही' का अर्थ है.....'अपने को तपा' अर्थात् तप कर। २३. सुकुमारता ( सोउमल्ल * ) : प्राकृा में सोउमल्ल, सोअमल्ल, सोगगल्ल, सोगुमल्ल—ये चारों रूप मिलते हैं। जो सुकुमार होता है उसे काम-विषयेच्छा सताने लगती है तथा वह स्त्रियों का काम्य हो जाता है। अत: सौकुमार्य को छोड़ने की आवश्यकता बतलाई है। २४. द्वेष-भाव ( दोसंग): संयम के प्रति अरुचिभाव-घृणा -अरति को द्वेष कहते हैं । अनिष्ट विषयों के प्रति घृणा को भी द्वेष कहा जाता है । अनिष्ट विषयों में द्वेष का छेदन करना चाहिए और इष्ट विषयों के प्रति मन का नियमन करना चाहिए । राग और द्वेष—ये दोनों कर्म-बंध के हेतु हैं। अत: इन पर विजय पाने के लिए पूर्ण प्रयत्न आवश्यक है । २५. राग-भाव ( राग ): इष्ट शब्दादि विषयों के प्रति प्रेम-भाव ... अनुराग को राग कहते हैं। १–ठा० ४१५८१: चहि ठाणेहिं मेहुणरूण्णा समुप्पज्जति, तं० चितमंससोणिययाए, मोहणिज्जस्त कम्मस्स उदएण, मतीए, तट्ठोवओगेणं। २ –जि० चू. पृ० ८५ : सोय न सक्कइ उवचियसरीरेण णिग्गहे। ३ -जि० चू० पृ० ८५ : तम्हा कायबलनिग्गहे इमं सुत्तं भण्णइ । ४ --(क) जि० चू० पृ० १६ : एगग्गहमे तज्जाइयाण गहणंति न केवलं आयावयाहि,-उणोदरियमवि करेहि । (ख) हा० टी०प०६५ : 'एकग्रहणे तज्जातीयग्रहण' मितिन्यायाधथानुरूपमूनोदरतादेरपि विधिः । ५. .....(क) जि० ० ० ८६ : सुरुमालभाबो सोकमल्ल, सुकुमालस्स य कामेहि इच्छा भवइ, कमणिज्जो व स्त्रीणां भवति सूकूमालः, ____ तम्हा एवं सुकुमारभाव छड्डेहित्ति । (ख) हा० टी० प० ६५ : सौकुमार्यात्कामेच्छा प्रवर्तते योषितां च प्रार्थनीयो भवति । ६-जि० चू० पृ० ८६ : ते य कामा सहादयो विसया तेसु अणिसु दोसो छिदियको, इठेसु वट्टतो अस्सो इव अप्पा विण थियो । रागो दोसो य कम्मबंधस्स हे उणो भवंति, सवपयत्तेण ते वज्जणिज्जत्ति। Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003625
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Dasaveyaliyam Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1974
Total Pages632
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_dashvaikalik
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy