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दसवेआलियं ( दशवकालिक )
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अध्ययन २ : श्लोक ४ टि० १८-२० रहने का स्थान संयम होता है । कदाचित् कर्मोदय से भुक्तभोगी होने पर पूर्व-क्रीड़ा के अनुस्मरण से अथवा अभुक्तभोगी होने पर कौतूहलवश मन काबू में न रहे---संयमरूपी घर से बाहर निकल जाये।
स्थानाङ्ग-टीका में 'बहिद्धा' का अर्थ “मैथुन" मिलता है । यह अर्थ लेने से अर्थ होगा – मन मैथुन में प्रवृत्त हो जाये । _ 'कदाचित् शब्द के भाव को समझाने तथा ऐसे समय में क्या कर्तव्य है इसको बताने के लिये चूणि और टीकाकार एक दृष्टान्त उपस्थित करते हैं। उसका भावार्थ इस प्रकार है : "एक राजपुत्र बाहर उपस्थानशाला में खेल रहा था। एक दासी उसके पास से जल का भरा घड़ा लेकर निकली। राजपुत्र ने कंकड फेंक कर उसके धड़े में छेद कर दिया । दासी रोने लगी । उसे रोती देख राजपुत्र ने फिर गोली चलाई। दासी सोचने लगी : यदि रक्षक ही भक्षक हो जाये तो पुकार कहाँ की जाये ? जल से उत्पन्न अग्नि कैसे बुझायी जाये ? यह सोच कर दासी ने कर्दम की गोली से तत्क्षण ही उस घट-छिद्र को स्थगित कर दिया-ढंक दिया। इसी तरह संयम में रमण करते हुए भी यदि संयमी का मन योगवश बाहर निकल जाये-भटकने लगे तो वह प्रशस्त परिणाम से उस अशुभ संकल्प रूपी छिद्र को चरित्र-जल के रक्षण के लिए शीघ्र ही स्थगित करे।" १८. वह मेरी नहीं है और न मैं ही उसका हूँ ( न सा महं नोवि अहं पि तीसे ग ) :
यह भेद-चिन्तन का सूत्र है। लगभग सभी अध्यात्म-चिन्तकों ने भेद-चिन्तन को मोह-त्याग का बहुत बड़ा साधन माना है । इसका प्रारम्भ बाहरी वस्तुओं से होता है और अन्त में यह 'अन्यच्छरीरमन्योऽहम्', यह मेरा शरीर मुझसे भिन्न है और मैं इससे भिन्न हूं--- यहाँ तक पहुंच जाता है। चूर्णिकार ने भेद को समझाने के लिए रोचक उदाहरण प्रस्तुत किया है । उसका सार इस प्रकार है :
एक वणिक-पुत्र था। उसने स्त्री छोड़ प्रव्रज्या ग्रहण की। वह इस प्रकार घोष करता-“वह मेरी नहीं है और न मैं भी उसका हूं।" ऐसा रटते-रटते वह सोचने लगा.. “वह मेरी है, मैं भी उसका हूं। वह मुझ में अनुरक्त है। मैंने उसका त्याग क्यों किया?" ऐसा विचार कर वह अपने उपकरणों को ले उस ग्राम में पहुँचा जहाँ उसकी पूर्व स्त्री थी। उसने अपने पूर्व पति को पहचान लिया पर वह उसे न पहचान सका । वणिका-पुत्र ने पूछा- 'अमुक की पत्नी मर चुकी या जीवित है ?" उसका विचार था यदि वह जीबित होगी तो प्रव्रज्या छोड़ दंगा, नहीं तो नहीं । स्त्री ने सोचा-यदि इसने प्रवज्या छोड़ दी तो दोनों संसार में भ्रमण करेंगे । यह सोच वह बोली.....“बह दूसरे के साथ चली गई। वह सोचने लगा....."जो पाठ मुझे सिखलाया गया वह ठीक है...'बह मेरी नहीं है और न मैं भी उराका हूं'।" इस तरह उसे पुनः परम संवेग उत्पन्न हुआ। वह वोला— "मैं वापस जाता हूँ।"
चौथे श्लोक में कहा गया है कि यदि कभी काम-राग जागृत हो जाये, तो इस तरह विचार कर संयमी संयम में स्थिर हो जाये । संयम में विषाद-प्राप्त आत्मा को ऐसे ही चिन्तन-मंत्र से पुनः संयम में सुप्रतिष्टित करे । १६. विषय-राग को दूर करे ( विणएज्ज रागं घ)
_ 'राग' का अर्थ है रंजित होना । चरित्र में भेद डालने वाले प्रसंग के उपस्थित होने पर विषय-राग का विनयन करे, उसका दमन करे अर्थात् मन का निग्रह करे । २०. ( इच्चेवघ):
मांसादेवा-हैमश० ८।१।२६ अनेन एवं शब्दस्य अनुस्वारलोप:-इस सूत्र से ‘एवं' शब्द के अनुस्वार का लोप हुआ है।
--(क) जि० चू०८४ : बहिद्धा नाम संजमाओ बाहि गच्छइ, कहं ? पुन्दरयानुसरणेणं था भुत्तभोइणो अभुतभोगिणो वा कोऊहलवत्तियाए। (ख) हा० टी०प०६४ : 'बहिर्धा' बहिः भुक्तभोगिनः पूर्वक्रीडितानुस्मरणादिना अभुक्तभोगिनस्तु कुतूहलादिना मनः-अंतः
करणं निःसरति-निर्गच्छति बहिर्धा-संयमगेहाबहिरित्यर्थः । २–ठा० ४-१३६; टी० ५० १६० : बहिद्धा-मैथुनम् । ३-० चू० पृ० ४४; जि० ५० पृ० ८४; हा० टी० १०६४ । ४-- मोहत्यागाष्टकम् : अयं ममेति मन्त्रोऽय, मोहस्य जगदाध्यकृत् ।
अयमेव हि नजपूर्वः, प्रतिमन्त्रोऽपि मोह जित् ।।
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