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सामण्णपुव्वयं ( श्रामण्यपूर्वक )
अध्ययन २ : श्लोक ४ टि०१४-१७ साधु बालक बुद्धि से आचार्य से बोला—'मुझे अन्यत्र ले चलें, मैं ताने नहीं सह सकता।' आचार्य ने अभयकुमार से कहा-...'हम विहार करेंगे।' अभय कुमार बोला...'क्या यह क्षेत्र मासकल्प के योग्य नहीं कि उसके पहले ही आप विहार करने का विचार करते हैं ?' आचार्य ने सारी बातें कही । अभय कुमार बोला 'आप बिराजें । मैं लोगों को युक्ति से निवारित करूगा ।' आचार्य वहीं विराजे । दूसरे दिन अभयकुमार ने तीन रत्नकोटि के ढिग स्थापित किये। नगर में उद्घोषणा कराई --'अभयकुमार दान देते हैं।' लोग आये । अभयकुमार बोले-... 'ये तीन रत्नकोटि के ढिग हैं। जो अग्नि, पानी और स्त्री-इन तीन को छोड़ेगा उसे मैं ये तीन रत्नकोटि दूंगा।' लोग बोले'इनके विना रत्नकोटियों से क्या प्रयोजन ?' अभयकुमार बोले - 'तब क्यों व्यंग करते हो कि दीन लकड़हारा प्रवजित हुआ है ? उसके पास धन भले ही न हो, उसने तीन रत्नकोटि का परित्याग किया है। लोग बोले- 'स्वामिन् ! सत्य है। आचार्य कहते हैं— इस तरह तीन सार पदार्थ अग्नि, उदक और महिला को छोड़ कर प्रव्रज्या लेनेवाला धनहीन व्यक्ति भी संयम में स्थित होने पर त्यागी कहलायेगा।
श्लोक ४:
१४. समदृष्टि पूर्वक ( समाए पेहाए क ):
चूणि और टीका के अनुसार 'समाए' का अर्थ है —अपने और दूसरे को समान देखते हुए, अपने और दूसरे में अन्तर न करते हुए । 'पेहाए' का अर्थ है प्रेक्षा, चिन्ता, भावना, ध्यान या दृष्टिपूर्वक ।
___पर यहाँ 'समाए पेहाए' का अर्थ – 'रूप-कुरूप में समभाव रखते हुए-राग-द्वेष की भावना न करते हुए'—अधिक संगत लगता है। समदृष्टि पूर्वक अर्थात् प्रशस्त ध्यानपूर्वक ।
___अगस्त्य 'चूणि में इसका वैकल्पिक पाठ 'समाय' माना है। उसका अर्थ होगा- “संयम के लिए प्रेक्षापूर्वक विचरते हुए।" १५. ( परिव्वयंतो के):
अगस्त्य चूणि में परिव्ययंतो' के अनुस्वार को अलाक्षणिक माना है । वैकल्पिक रूप में इसे मन के साथ जोड़ा है। इसका अनुवाद इन शब्दों में होगा --साम्य-चितन में रमता हुआ मन ।
जिनदास महत्तर 'परिव्वयंतो' को प्रथमा का एकवचन मानते हैं और अगले चरण से उसका सम्बन्ध जोड़ने के लिए 'तस्स' का अध्याहार करते हैं। १६. यदि कदाचित् ( सिया ):
अगस्त्य चूणि में 'सिया' शब्द का अर्थ 'यदि' किया गया है । इसका अर्थ- स्यात्, कदाचित् भी मिलता है । भावार्थ है प्रशस्तध्यान-स्थान में वर्तते हुए भी यदि हठात् मोहनीय कर्म के उदय से । १७. मन (संयम से) बाहर निकल जाये ( मणो निस्सरई बहिद्धा ख ) :
'बहिद्धा' का अर्थ है बहिस्तात् --बाहर । भावार्थ है जैसे घर मनुष्य के रहने का स्थान होता है वैसे ही श्रमण - साधु के मन के
१-अ० चू० पृ० ४३, जि० चू० पृ० ८४; हा० टी०प०६३। २-(क) जि० चू० पृ०८४ : समा णाम परमप्पाणं च समं पासइ, णो विसमं, पेहा णाम चिन्ता भण्णइ ।
(ख) हा० टी० प० ६३ : 'समया' आत्मपरतुल्यया प्रेक्ष्यतेऽनयेति प्रेक्षा-दृष्टिस्तया प्रेक्षया-दृष्ट्या । ३.---.अ० चू० पृ० ४४ : अहवा 'समाय' समो—संजमो तदत्थं पेहा--प्रेक्षा। ४.-अ० चू० पृ० ४४ : वृत्तभंगभयात् अलक्खणो अणुस्सारो। ५... अ० चू० पृ० ४४ : अहवा तदेव मणोऽभिसंबज्झति । ६-जि० चू० पृ०८४ : परिव्वयंतो णाम गामणगरादीणि उवदेसेणं विचरतोत्ति वुत्तं भवइ तस्स । ७ ---अ० चू० पृ० ४४ : सिय सद्दो आसंकावादी 'जति' एतम्मि अत्थे वट्टति । ८--हा० टी०प०६४ : 'स्यात्' कदाचिदचिन्त्यत्वात् कर्मगतेः । &-जि० चू० पृ० ८४ : पसत्थेहि झाणठाणेहि वर्ल्ड तस्स मोहणीयस्स कम्मस्स उदएणं ।
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