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दसवेआलियं ( दशवकालिक)
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अध्ययन २ : श्लोक ३ टि० ११-१३ ११. भोग ( भोए क ):
इन्द्रियों के विषय-स्पर्श, रस, गन्ध, रूप और शब्द का आसेवन भोग कहलाता है।
भोग काम का उत्तरवर्ती है-- पहले कामना होती है, फिर भोग होता है। इसलिए काम और भोग दोनों एकार्थक जैसे बने हुए हैं । आगमों में रूप और शब्द को काम तथा स्पर्श, रस और गन्ध को भोग कहा है। शब्द श्रोत्र के साथ स्पृष्ट-मात्र होता है, रूप चक्षु के साथ स्पृष्ट नहीं होता और स्पर्श, रस तथा गंध अपनी ग्राहक इंद्रियों के साथ गहरा संबंध स्थापित करते हैं। इसलिए थोत्र और चक्षु इन्द्रिय की अपेक्षा जीव 'कामी' तथा स्पर्शन, रसन और घ्राण इंद्रिय की अपेक्षा जीव 'भोगी' कहलाता है' । यह सूक्ष्मदृष्टि है। यहां व्यवहारस्पर्शी स्थूलदृष्टि से सभी विषयों के आसेवन को भोग कहा है। १२. पीठ फेर लेता है ( विपिदिकुम्वई ख ) :
इसका भावार्थ है-- भोगों का परित्याग करता है; उन्हें दूर से ही वर्जता है; उनकी ओर पीट कर लेता है; उनके सम्मुख नहीं ताकता; उनसे मुंह मोड़ लेता है।
हरिभद्र सूरि ने यहां विपिट्टि कुब्बई' का अर्थ किया है --विविध-अनेक प्रकार की शुभ-भावना आदि से भोगों को पीट पीछे करता है- उनका परित्याग करता है । _ 'लद्धेवि पिट्टिकुब्वई' (सं० लब्धानपि पृष्ठीकुर्यात् )---'वि' पद का 'पिट्टिकुब्वई' के साथ योग न माना जाए तो इसकी 'अवि' (सं० अपि) के रूप में व्याख्या की जा सकती है-भोग उपलब्ध होने पर भी। प्रस्तुत अर्थ में यह संगत भी है। १३. स्वाधीनता पूर्वक भोगों का त्याग करता है ( साहीणे चयइ भोए ग ) :
प्रश्न है-जब 'लब्ध' शब्द है ही तब पुन: 'स्वाधीन' शब्द का प्रयोग क्यों किया गया ? क्या दोनों एकार्थक नहीं हैं ?
धुणिकार के अनुसार 'लब्ध' शब्द का सम्बन्ध पदार्थों से है और स्वाधीन का सम्बन्ध भोक्ता से । स्वाधीन अर्थात् स्वस्थ और भोगसमर्थ । उन्मत्त, रोगी और प्रोषित पराधीन हैं। वे अपनी परवशता के कारण भोगों का सेवन नहीं कर पाते । यह उनका त्याग नहीं है।
हरिभद्र सूरि ने व्याख्या में कहा है-किसी बन्धन में बंधे होने से नहीं, वियोगी होने से नहीं, परवश होने से नहीं, पर स्वाधीन होते हुए भी जो लब्ध भोगों का त्याग करता है, वह त्यागी है।
जो विविध प्रकार के भोगों से सम्पन्न है, जो उन्हें भोगने में भी स्वाधीन है वह यदि अनेक प्रकार की शुभ-भावना आदि से उनका परित्याग करता है तो वह त्यागी है।
व्याख्याकारों ने स्वाधीन भोगों को त्यागने वाले व्यक्तियों के उदाहरण में भरत चक्रवर्ती आदि का नामोल्लेख किया है। यहां प्रश्न उटता है कि यदि भरत और जम्बू जैसे स्वाधीन भोगों को परित्याग करनेवाले ही त्यागी हैं, तो क्या निर्धनावस्था में प्रव्रज्या लेकर अहिंसा आदि से युक्त हो श्रामण्य का सम्यक् रूप से पालन करनेवाले त्यागी नहीं हैं ? आचार्य उत्तर देते हैं - ऐसे प्रव्रजित व्यक्ति भी दीन नहीं हैं । वे भी तीन रत्न कोटि का परित्याग कर प्रव्रज्या लेते हैं। लोक में अग्नि, जल और महिला--- ये तीन सार-रत्न हैं। इन्हें छोड़ कर वे प्रवजित होते हैं, अत: वे त्यागी हैं। शिष्य पूछता है-ये रत्न कैसे हैं ? आचार्य दृष्टान्त देते हुए कहते हैं : एक लकड़हारा ने सुधर्मस्वामी के समीप प्रव्रज्या ली। जब वह भिक्षा के लिए घूमता तब लोग व्यंग में कहते- 'यह लकड़हारा है जो प्रव्रजित हुआ है।'
१-जि० चू० पृ० ८२ : भोगा-सद्दादयो विसया। २-- नं० सू०३७ : गा० ७८ : पुट्ठसुणेइ सरूवं पुण पासई अपुढे तु। गंधं रसं च फासं च बद्धपुट्ठ वियागरे ॥ ३- भग० ७ । ७ : सोइंदियचविखंदियाई पडुच्च कामी घार्णािदयजिभिंदियफासिदियाई पडुच्च भोगी। ४--जि० चू० पृ०८३ : तओ भोगाओ विविहेहि संपण्णा विपट्ठीओ उ कुव्वइ, परिचयइत्ति वुत्तं भवइ, अहवा विप्पट्टि कुव्वंतित्ति
दूरओ विवज्जयंती, अहवा विप्पट्ठिन्ति पच्छओ कुब्वइ, ण मग्गओ। ५-हा० टी०प० ६२ : विविधम्-अनकैः प्रकारः शुभभावनादिभिः पृष्ठतः करोति, परित्यजति । ६--जि० चू० पू० ८३ : साहिणो णाम कल्लसरीरो, भोगसमत्थोत्ति वुत्तं भवइ, न उम्मत्तो रोगिओ पवसिओ वा। ७-हा० टी०प०६२ : स च न बन्धनबद्धः प्रोषितो वा किन्तु 'स्वाधीनः' अपरायत्तः, स्वाधीनानेव त्यजति भोगान् स एव
त्यागीत्युच्यते।
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