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सामण्णपुव्वयं ( श्रामण्यपूर्वक )
अध्ययन २: श्लोक ३ टि०६-१० है । जो अपनी वस्तु का परित्याग नहीं करता केवल अपनी अस्ववशता के कारण उसका सेवन नहीं करता, वह त्यागी कैसे कहा जायेगा? इस तरह वस्तुओं का सेवन न करने पर भी जो काम के संकल्पों से संक्लिप्ट होता है वह त्यागी नहीं होता। ६. से चाइप :
__'से'-वह पुमा'। यहां बहुवचन के स्थान में एकवचन का प्रयोग हुआ है -यह व्याख्याकारों का अभिमत है। अगस्त्यसिंह स्थविर ने बहुवचन के स्थान में एकवचन का आदेश माना है। जिनदास महत्तर ने एकवचन के प्रयोग का हेतु आगम की रचना-शैली का वैचित्र्य, सुखोच्चारण और ग्रन्थलाधव माना है । हरिभद्र सूरि ने ववन-परिवर्तन का कारण रचना-शैली की विचित्रता के अतिरिक्त विपर्यय और माना है। प्राकृत में विभक्ति और वचन का विपर्यय होता है।
स्थानांग में शुद्ध वाणी के दश अनुयोग बतलाए हैं। उनमें 'संक्रामित' नाम का एक अनुयोग है। उसका अर्थ है--विभक्ति और बचन का संक्रमण - एक विभक्ति का दूसरी विभक्ति और एकवचन का दुसरे वचन में बदल जाना । टीकाकार अभयदेव सुरि ने 'मंकामिय' अनुयोग के उदाहरण के लिए इसी श्लोक का उपयोग किया है ।
श्लोक ३: १०. कांत और प्रिय ( कंते पिए क):
अगस्त्यसिंह मुनि के अनुसार 'कान्त' सहज सुन्दर और 'प्रिय' अभिप्रायकृत सुन्दर होता है। जिनदास महत्तर और हरिभद्र के अनुसार 'कान्त' का अर्थ है रमणीय और 'प्रिय' का अर्थ है इष्ट । शिष्य ने पूछा- "भगवन् ! जो कान्त होते हैं वे ही प्रिय होते हैं, फिर एक साथ दो विशेषण क्यों?"
आचार्य ने कहा---'"शिष्य ! (१) एक वस्तु कान्त होती है पर प्रिय नहीं होती। (२) एक वस्तु प्रिय होती है पर कान्त नहीं होती। (३) एक वस्तु प्रिय भी होती है और कान्त भी । (४) एक वस्तु न प्रिय होती है और न कान्त ।"
शिष्य ने पूछा ..."भगवन् ! इसका क्या कारण है ?"
आचार्य ने कहा - "शिष्य ! किसी व्यक्ति को कान्त-वस्तु में कान्त-बुद्धि उत्पन्न होती है और किसी को अकान्त-वस्तु में भी कान्तबुद्धि उत्पन्न होती है । एक वस्तु किसी एक के लिए कान्त होती है, वही दूसरे के लिए अकान्त होती हैं । क्रोध, असहिष्णुता, अकृतज्ञता
और मिथ्यात्वाभिनिवेश (बोध-विपर्यास)-इन कारणों से व्यक्ति विद्यमान गुणों को नहीं देख पाता किन्तु अविद्यमान दोष देखने लग जाता है, कान्त में अकान्त की बुद्धि बन जाती है ।
जो कान्त होता है, वह प्रिय होता है, ऐसा नियम नहीं है । इसलिए 'कान्त' और 'प्रिय'-ये दोनों विशेषण सार्थक हैं।
१-(क) जि० चू० पृ० ८१ : एते वस्त्रादयः परिभोगा: केचिदच्छंदा न भुजते नासौ परित्यागः । (ख) जि० चू० पृ०८२ : अच्छंदा अभुजमाणा य जीवा णो परिचत्तभोगिणो भवंति ।............एवं अभुजमाणो कामे संकप्प
संकिलित्ताए चागी न भण्णइ। २-से : अत एत सौ पुसि मागध्याम् --- हैमश० : ८।४।२८७ । ३–अ० चू० पृ० ४२ : से इति बहुवयणस्स स्थाणे एगवयणमादि। ४ -जि० चू० पृ० ८२ : विचित्तो सुत्तनिबंधो भवति, सुहमुहोच्चारणत्थं गंथलाघवत्थं च । ५-हा० टी० पृ० ६१ : कि बहुवचनोद्देशेऽपि एकवचन निर्देशः ? विचित्रत्वात्सूत्रगतेविपर्ययश्च भवत्येवेति कृत्वा । ६-ठा० १०६६ । वृ० पत्र ४७० । ७ -अ० चू० पृ० ४३ : कंत इति सामन्नं,........प्रिय इति अभिप्रायकतं किंचि अकंतमवि कस्सति साभिप्रायतोप्रियम् । ८-(क) जि० चू० पृ०८२ : कमनीयाः कान्ताः शोभना इत्यर्थः, पिया नाम इठ्ठा ।
(ख) हा० टी०प०६२ : ‘कान्तान्' कमनीयान् शोभनानित्यर्थः 'प्रियान्' इष्टान् । k—जि० चू० पृ० ८२ : एत्थ सीसो पुण चोएति णणु जे कंता ते चेव पिय । भवंति ? आचार्यः प्रत्युवाचकता णामेगे णो पिया
(१), पिया णामेगे णो कंता (२), एगे पियावि कंतावि (३), एगे णो पिया णो कंता (४)। कि 'कारणं' ? कस्सवि कंतेसु
कंतबुद्धी उप्पज्जइ, कस्सइ पुण अकतेसुवि कंतबुद्धी उप्पज्जइ, अहवा जे चेव अण्णस्स कता ते चेव अण्णस्स अकता। १०–ठा० ४।६२१ : चहि ठाणेहि संते गुणे णासेज्जा, तंजहा-कोहेणं, पडिनिवेसेणं, अकयण्णुयाए, मिच्छत्ताभिनिवेसेणं ।
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