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________________ दसवेनालियं (दशवैकालिक) २४ अध्ययन २ : श्लोक २ टि० ६-८ श्लोक २: ६. जो परवश ( या अभावग्रस्त ) होने के कारण ( अच्छन्दा" ) : _ 'अच्छन्दा' शब्द के बाद मूल चरण में जो 'जे' शब्द है वह साधु का द्योतक है। 'अच्छन्दा' शब्द साधु की विशेषता बतलाने वाला है। इसी कारण हरिभद्र सूरी ने इसका अर्थ 'अस्ववशाः' किया है अर्थात् जो साधु स्वाधीन न होने से-परवश होने से भोगों को नहीं भोगता। _ 'अच्छन्दा' का प्रयोग कर्तृवाचक बहुवचन में हुआ है । पर उमे कर्मवाचक बहुवचन में भी माना जा सकता है। उस अवस्था में वह वस्त्र आदि वस्तुओं का विशेषण होगा और अर्थ होगा अस्ववश पदार्थ-जो पदार्थ पास में नहीं या जिन पर वश नहीं। अनुबाद में इन दोनों अर्थों को समाविष्ट किया गया है। इसका भावार्थ समझने के लिये चूणि-द्वय' और टीका में एक कथा मिलती है। उसका सार इस प्रकार है चन्द्रगुप्त ने नन्द को बाहर निकाल दिया था। नन्द का अमात्य सुबन्धु था। वह चन्द्रगुप्त के अमात्य चाणक्य के प्रति द्वेष करता था। एक दिन अवसर देखकर सुबन्धु ने चन्द्र गुप्त से कहा -- “आप मुझे धन नहीं देते तो भी आपका हित किसमें है ---यह बताना मैं अपना कर्तव्य समझता हूं-'आपकी माँ को चाणक्य ने मार डाला है'।" धाय से पूछने पर उसने भी राजा से ऐसा ही कहा। जब चाणक्य राजा के पास आया तो राजा ने उसे स्नेह-रष्टि से नहीं देखा । चाणक्य नाराजगी की बात समझ गया । उसने यह समझ कर कि मौत आ गई, अपनी सारी सम्पत्ति पुत्र-पौत्रों में बांट दी। फिर गंधचूर्ण इकट्ठा कर एक पत्र लिखा। पत्र को गंध के साथ डिब्बे में रखा। फिर एक के बाद एक, इस तरह चार मंजूषाओं के अन्दर उसे रखा। फिर मंजूषा को सुगन्धित कोठे में रख उसे कीलों से जड़ दिया। फिर जंगल के गोकुल में जा इंगिनी-मरण अनशन ग्रहण किया। राजा को धाय से यह बात मालूम हुई। वह पछताने लगा- 'मैंने बुरा किया।" वह रानियों सहित चाणक्य से क्षमा मांगने के लिए गया और क्षमा मांग उससे वापस आने का निवेदन किया। चाणक्य बोले - "मैं सब कुछ त्याग चुका । अब नहीं जाता।" मौका देख कर सुबन्धु बोला"आप आज्ञा दें तो मैं इनकी पूजा करूँ।" राजा ने आज्ञा दी। सुबन्धु ने धूप जला वहां एकत्रित छानों पर अंगार फेंक दिया। भयानक अग्नि में चाणक्य जल गया। राजा और सुबन्धु वापस आये। राजा को प्रसन्न कर मौका पा सुबन्धु ने चाणक्य का घर तथा घर की सारी सामग्री माँग ली। फिर घर सम्भाला। कोठा देखा। पेटी देखी। अन्त में डिब्बा देखा । मुगन्धित पत्र देखा। उसे पढ़ने लगा। उसमें लिखा था—जो सुगन्धित चूर्ण सूंघने के बाद स्नान करेगा, अलंकार धारण करेगा, ठण्डा जल पीयेगा, महती शय्या पर शयन करेगा, यान पर चढ़ेगा, गन्धर्व-गान सुनेगा और इसी तरह अन्य इष्ट विषयों का भोग करेगा, साधु की तरह नहीं रहेगा, वह मृत्यु को प्राप्त होगा । और इनसे विरत हो साधु की तरह रहेगा, वह मृत्यु को प्राप्त नहीं होगा। सुबन्धु ने दूसरे मनुष्य को गन्ध संघा, भोग पदार्थों का सेवन करा, परीक्षा की। वह मर गया। जीवनार्थी सुबन्धु साधु की तरह रहने लगा। ___मृत्यु के भय से अकाम रहने पर भी जैसे वह सुबन्धु साधु नहीं कहा जा सकता, वैसे ही विवशता के कारण भोगों को न भोगने से कोई त्यागी नहीं कहा जा सकता। ७. उपभोग नहीं करता ( न भुजन्ति ग ): ' जन्ति' बहुवचन है । इसलिए इसका अर्थ 'उपभोग नहीं करते' ऐसा होना चाहिए था, पर श्लोक का अन्तिम चरण एकवचनान्त है. इसलिए एकवचन का अर्थ किया है । धुणि और टीका में जैसे एकवचन के प्रयोग को बहुवचन के स्थान में माना है, वैसे ही बहुवचन के प्रयोग को एकवचन के स्थान में माना जा सकता है । टीकाकार बहुवचन-एकवचन की असंगति देख कर उसका स्पष्टीकरण करते हुए लिखते हैं—सूत्र की गति (रचना) विचित्र प्रकार की होने से तथा मागवी का संस्कृत में विपर्यय भी होता है इससे ऐसा है-अत्र सूत्रगतेविचित्रत्वात् बहुवचने अपि एकवचननिर्देशः, विचित्रत्वात्सूत्रगतेविपर्ययश्च भवति एव इति कृत्वा । ८. त्यागी नहीं कहलाता ( न से चाइ त्ति वुच्चइ घ ) प्रश्न है-जो पदार्थों का सेवन नहीं करता वह त्यागी क्यों नहीं? इसका उत्तर यह है-त्यागी वह होता है जो परित्याग करता १-अ० चू०, जि० चू० पृ० ८१ २-हा० टी० पृ० ६१ Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003625
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Dasaveyaliyam Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1974
Total Pages632
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_dashvaikalik
File Size17 MB
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