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________________ सामण्णव्वयं ( श्रमण्णयपूर्वक ) २३ घ ४. संकल्प के वशीभूत होकर ( संकप्पस्स वसं गओ ) : यहाँ संकल्प का अर्थ काम अध्यवसाय है' । काम का मूल संकल्प है। संकल्प से काम और काम से विषाद यह इनके होने का कम है । सूक्त के रूप में ऐसे कहा जा सकता है- "संकल्पाज्जायते कामो, विषादो जायते ततः ।" संकल्प और काम का सम्बन्ध बताने के लिए 'अगस्त्य - चूर्णि' में एक श्लोक उद्धृत किया गया है "काम ! जानामि ते रूपं, सङ्कल्पात् किल जायसे । न त्वां सङ्कल्पयिष्यामि ततो मे न भविष्यसि ।। " -काम ! मैं तुझे जानता हूँ | तू संकल्प से पैदा होता है । मैं तेरा संकल्प ही नहीं करूंगा 1 तू मेरे मन में उत्पन्न ही नहीं हो सकेगा। ग ५. पग-पग पर विवादग्रस्त होता हैं ( पए पए विसीयंतो " ) : स्पर्शन आदि इन्द्रिय, स्पर्श आदि इन्द्रियों के विषय, क्रोधादि कवाय, क्षुधा आदि परीषद्, वेदना ( असुखानुभूति) और पशु आदि द्वारा कृत उपसर्ग अपराध पद कहे गये हैं । अपराध-पद अर्थात् ऐसे विकार-स्थल जहाँ हर समय मनुष्य के विचलित होने की सम्भावना रहती है । क्षुधा, सुपा, सर्दी, गर्मी, बारा मछर की कमी, अलाभ- आहारादि का न मिलना, शय्या का अभाव ऐसे पह (कष्ट) साधु को होते ही रहते हैं। वधमारे जाने, आकोशोर बचन कहे जाने आदि के उपसर्ग ( यातनाएं उसके सामने आती ही रहती हैं। रोग, तृण-स्पर्श की वेदना, उस बिहार और मैल की असह्यता, एकान्त वास के भय, एकान्त में स्त्रियों द्वारा अनुराग किया जाना, सत्कार - पुरस्कार की भावना, प्रज्ञा और ज्ञान के न होने हीन भावना से उत्पन्न हुई ग्लानि आदि अनेक स्थल हैं जहाँ मनुष्य विचलित हो जाता है । परीषह, उपसर्ग और वेदना के समय आचार का भंग कर देना, खेद - खिन्न हो जाना, 'इससे तो पुनः गृहवास में चला जाना अच्छा' - ऐसा सोचना, अनुताप करना, इंद्रियों के विषयों में फँस जाना, कषाय ( क्रोध, मान, माया, लोभ) कर बैठना- इसे विषादग्रस्त होना कहते हैं। संयम और धर्म के प्रति अरुचि की भावना को उत्पन्न होने देना विषाद है । से पग-पग पर विषाद ग्रस्त होने की बात को समझाने के लिए एक कहानी मिलती है, जिसके पूर्वार्द्ध का सार इस प्रकार है एक वृद्ध पुरुष पुत्र सहित प्रव्रजित हुआ । चेला वृद्ध साधु को अतीव इष्ट था। एक बार दुःख प्रकट करते हुए वह कहने लगा : "बिना जूते के चला नहीं जाता।" अनुकम्पावन वृद्ध ने उसे जूतों की छूट दी । तब चेला बोला : “ऊपर का तला ठण्ड से फटता है।" वृद्ध ने मोजे करा दिये । तब कहने लगा- "सिर अत्यन्त जलने लगता है ।" दृद्ध ने सिर ढँकने के वस्त्र की आज्ञा दी । तब बोला- “भिक्षा के लिये नहीं घूमा जाता।" वृद्ध ने वहीं उसे भोजन ला कर देना शुरू किया। फिर बोला "भूमि पर नहीं सोया जाता ।" वृद्ध ने बिछौने की आज्ञा दी। फिर बोला - "लोच करना नहीं बनता ।" वृद्ध ने क्षुर को काम में लेने की आज्ञा दी । फिर बोला- "बिना स्नान नहीं रहा जाता ।" वृद्ध ने प्रासुक पानी से स्नान करने की आज्ञा दी। इस तरह वृद्ध साधु स्नेहवश बालक साधु की इच्छानुसार करता जाता था । काल बीतने पर बालक साधु बोला- "मैं बिना स्त्री के नहीं रह सकता ।" वृद्ध ने यह जानकर कि यह शठ है और अयोग्य है, उसे अपने आश्रय से दूर कर दिया । इच्छाओं के वश होने वाला व्यक्ति इसी तरह बात-बात में शिथिल हो, कायरता दिखा अपना विनाश कर लेता है । १- जि० चू० पृ० ७८ : संकप्पोत्ति वा छंदोत्ति वा कामावसायो । २- नि० गा० १७५ : इंदियविसयकसाया परीसहा वेयणा य उवसग्गा । एए अवराहपया जत्थ विसीयंती दुम्मेहा ॥ अध्ययन २ श्लोक १ टि० ४-५ : ३– (क) अ० चू० पृ० ४१ । (ख) जि० चू० पृ० ७८ (ग) हा० टी० प० : ८६ । ४- हरिभद्रसूरि के अनुसार वह कोंकण देश का वा (हा० टी० पृ० ८९ ) । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003625
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Dasaveyaliyam Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1974
Total Pages632
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_dashvaikalik
File Size17 MB
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