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________________ दसवेलियं ( दशवैकालिक ) ४६ -- नाणदंसण संपन्नं संजमे एवंगुणस संजयं २०- "देवा ५१ य त रथं । बाहु ॥ तिरियाणं च जओ मयाणं ख हे | होउ अमुवाणं मा वा होउ ति नो बए ॥ व सोह हेमं धार्य सिवं ति रा । क्या णु होज्न एयाणि मा वा होउ त्ति नो वए ॥ Jain Education International ५२ तहेव मेहं व नहं व मानवं न देव देव त्ति गिरं वएज्जा । सम्मुछिए उनए या पओए वएज्ज वा वुट्ठ बलाहए ति ॥ य । ५३- अंतलिक्खे त्तिणं ब्रूया गुज्झाणुचरियत्ति रिद्विमंत नरं दिस्स रिद्विमंत ति आलवे ॥ आलवे ॥ ५४ तहेब सावज्जणुमोयणी गिरा ओहारिणी जा य परोवधाइणी से कोह लोह भयसा व मानवो न हासमाणो वि गिरं वएन्ना ॥ ५५ सबक्कड समुपेहिया मुणी गिरं च दुट्ठ परिवज्जए सया । मियं अट्ठ अणुवीs भासए समाण मज्झे लहई पसंसणं ॥ ३४४ ज्ञानदर्शन संपन्न, संयमे च तपसि रतम् । एवं गु संयतं साधुमालपेत् ॥४ देवानां मनुजानाञ्च, तिरायांच अमुकानां जयो भवतु, मा वा भवतु इति नो वदेत् ॥ ५० ॥ बालो वा शीतोष् क्षेमं 'धायं' शिवमिति वा । कान मा वा भवेयुरिति नो वदेत् ||३१|| तथैव मेघं वा नभो वा मानवं न देव देव इति गिरं वदेत् । संमूच्छितः उन्नतो वा पयोदः, वदेद् वा वृष्टो बलाहक इति ॥ ५२ ॥ अन्तरिक्षमिति तद् ब्रूयात, गुह्यानुचरितमिति च । ऋद्धिमन्तं नरं दृष्ट्वा, ऋद्धिमान् इत्यालपेत् ॥ ५३ ॥ तथैव सावधानुमोदिनी गी अवधारिणी या च परोपघातिनी । सत्रोध-लोभ-भयेन वा मागवतः न हसन्नपि गिरं वदेत् ।। ५४ ।। सवाक्यशुद्धि समुत्प्रेक्ष्य मुनिः, गिरं च दुष्टां परिवर्जयेत्सदा । मितामष्ट अनुविविच्य भाषकः, सतां मध्ये लभते प्रशंसनम् ||५५ ॥ For Private & Personal Use Only अध्ययन ७ श्लोक ४९-५५ ४६- ज्ञान और दर्शन से सम्पन्न, संयम और तप में रत इस प्रकार सुण-समायुक्त संगमी को ही साथ क ५०देन मनुष्य और ोिं (पशुपक्षियों) का आपस में होने पर अयुक की विजय हो अथवा अमुक की विजय न हो - इस प्रकार न कहे । २१- वायु, वर्षा सुभिक्ष और शिव ये नहीं तो अच्छा रहे व गर्मी क्षे ये कब होंगे अथवा इस प्रकार न कहे । ५२ उसी प्रकार २१ 1 मेव, नभ और मानव के लिए ये देव हैं'- ऐसी वाणी न बोने पर रहा है, अथवा उन्नत रहा है, अथवा मेघ प्रकार बोले । ही रहा है उड़ हो रहा है भुक बरस पड़ा है- इस ५३ नम और मेघ को अन्तरिक्ष अथवा ह्याच रहे ऋािन्नर को देखकर यह ऋद्धिमान पुरुष 'ऐसा 53 ५४ - इसी प्रकार मुनि सावद्य का अनुमोदन करनेवाली, अवचारिणी (संदिग्ध अर्थ के विषय में असंदिग्ध ) और पर उपघातकारिणी भाषा, क्रोध, लोभ, भय, मान या हास्यवश न बोले । ५५ यह भूमि वास्य-शुद्धिको भाँति समझ कर दोषयुक्त वाणी का प्रयोग न करे। मित और दोष रहित वाणी सोचविचार कर बोलने वाला साधु सत् पुरुषों में प्रशंसा को प्राप्त होता है । www.jainelibrary.org
SR No.003625
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Dasaveyaliyam Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1974
Total Pages632
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_dashvaikalik
File Size17 MB
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