SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 396
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ वक्कसुद्धि ( वाक्यशुद्धि) ५६ -- भाषाए दोसे य गुणे य जाणिया तीसे य दुई परिवज्जए सपा छसु संजए सामणिए सया जए वएज पुढे हियमाणुलोमियं ॥ ५७ विभासी सुसमाहिईदिए चक्कायावगए अणिस्सिए । सनिने पुनम पुरेकर्ड आराहए लोगमिण तहा परं ॥ ----fer af 11 Jain Education International ३४५ भाषायाः दोषांश्च गुणांश्च ज्ञात्वा, तस्याश्च दुष्टायाः परिवर्जकः सदा । षट्सु संयतः श्रामण्ये सदा यतः, देद् बुद्ध: हितमानुलोनिकीम् ।। ५६ ।। परीक्ष्यभाषी सुसमाहितेन्द्रियः, अपगतचतुष्कपायः अनिश्रितः : । सनम पुराकृतं आराधयेल्लोकमिमं तथा परम् ||५७|| इति ब्रवीमि For Private & Personal Use Only अध्ययन ७ श्लोक ५६-५७ ५६ - भाषा के दोषों और गुणों को जानकर दोषपूर्ण भाषा को सदा वर्जने वाला, छह जीवकाय के प्रति संयत श्रामण्य में सदा सावधान रहने वाला प्रबुद्ध भिक्षु हित और अनुलोमिक वचन बोले । ५७ - गुण-दोष को परख कर बोलने वाला, सुसमाहित-इन्द्रिय वाला, चार कपायों से रहित निधित (तटस्थ) भिक्षु पूर्वकृत पाप- मल को नष्ट कर वर्तमान तथा भावी लोक की आराधना करता है । ऐसा मैं कहता हूँ। www.jainelibrary.org
SR No.003625
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Dasaveyaliyam Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1974
Total Pages632
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_dashvaikalik
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy