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टिप्पण: अध्ययन ७
श्लोक १:
१. विनय ( शुद्ध प्रयोग ) ( विणयंग ) :
जिनदास चुणि के अनुसार भाषा का वह प्रयोग, जिसमें धर्म का अतिक्रमण न हो, विनय कहलाता है' । टीकाकार ने भाषा के शुद्ध प्रयोग को विनय कहा है। अगस्त्य चूणि में मूल पाठ 'विजय' है और 'विनय' को वहाँ पाठान्तर माना है। विजय (विचय) अर्थात् निर्णय । वहाँ जो चार भाषाएं बताई गई हैं उनमें से असत्य और मिश्र तो साधु को सर्वथा बोलनी ही नहीं चाहिए । शेष दो भाषाओं (सत्य और व्यवहार) का साधु को निर्णय करना चाहिए-उसे क्या और कैसे बोलना या नहीं बोलना है- इसका विवेक करना चाहिए।
श्लोक २:
२. अवक्तव्य-सत्य ( सच्चा अवत्तव्वा क ):
अबक्तव्य-सत्य-भाषा का स्वरूप ग्यारहवें श्लोक से तेरहवें तक बतलाया गया है ।
३. जो भाषा बुद्धों के द्वारा अनाचीर्ण हो ( जा य बुद्ध हिंऽणाइन्ना ग ) :
श्लोक के इस चरण में असत्यामृषा का प्रतिपादन हुआ है । वह क्रम-दृष्टि से 'जा य सच्चा अवत्तब्वा' के बाद होना चाहिए था, किन्तु पद्य-रचना की अनुकूलता की दृष्टि से विभक्ति-भेद, वचन-भेद, लिङ्ग-भेद और क्रम-भेद हो सकता है । इसलिए यहाँ क्रम-भेद किया गया है।
श्लोक ४ : ४. श्लोक ४ :
इस श्लोक का अनुवाद चूणि और टीका के अभिमत से भिन्न है। हमारे अनुवाद का आधार इसके पूर्ववर्ती दो श्लोक हैं । दूसरे के अनुसार असत्य और सत्य-मृषा भाषा सर्वथा वर्जनीय है तथा सत्य और असत्यामृषा, जो बुद्धों के द्वारा अनाचीर्ण है वह वर्जनीय है। तीसरे श्लोक में आचीर्ण-सत्य और असत्यामुषा का स्वरूप बताकर उनके बोलने का विधान किया है। इसके पश्चात् क्रमशः चौथे में असत्यामषा और पाँचवें में सत्य-भाषा के अनाचीर्ण स्वरूप का संक्षिप्त वर्णन किया गया है।
१--जि० चू० पृ० २४४ : जं भासमाणो धम्मं णातिक्कमइ, एसो विणयो भण्णइ । २-हा० टी०प० २१३ : 'विनयं' शुद्धप्रयोगं विनीयतेऽनेन कर्मे तिकृत्वा । ३–अ० चू० १० १६४ : विजयो समाणजातियाओ णिकरिसणं । जधा वितियो सुमिगयो, तत्थ वयणीयावयणीयत्तण विजयं
सिक्खे । केसिंचि आलावओ "विणयं सिक्खे' तेसि विसेसेण जो गयो भाणितव्यो त सिक्खे । ४-(क) जि० चू० पृ० २४४ : चउत्थीवि जा अ बुद्धेहि णाइन्नागहणेण असच्चामोसावि गहिता, उक्कमकरणे मोसावि गहिता,
एवं बंधानुलोमत्थं, इतरहा सच्चाए उवरिमा भाणियव्वा, गंथाणुलोमताए विभत्तिभेदो होज्जा वयणभेदो वसु ( थी)
पुलिंगभेदो व होज्जा अत्थं अमुंचतो। (ख) हा० टीप० २१३ : या च 'बुद्ध तीर्थक रगणधरैरनाचरिता असत्यामषा आमन्त्रण्याज्ञापन्यादिलक्षणा।
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