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वक्कसुद्धि ( वाक्यशुद्धि)
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अध्ययन ७ : श्लोक ४ टि० ५-७ 'सासय' का संस्कृत रूप 'शाश्वतं' भी होता है। मोक्ष के लिए 'सासयं ठाणं' शब्द व्यवहृत होता है, जब कि स्वाशय यहाँ स्वतंत्र रहकर भी अपना पूर्ण अर्थ देता हैं । असत्याऽमृषा (व्यवहार) भाषा के बारह प्रकार हैं उनमें दसवां प्रकार है - 'संशयकरणी" । जो भाषा अनेकार्थवाचक होने के कारण श्रोता को संशय में डाल दे उसे संशयकरणी कहा जाता है। जैसे - किसी ने कहा- "सैन्धव लाओ।" सैन्धव का अर्थ----नमक और सिन्धु देश का घोड़ा, पुरुष और वस्त्र होता है। श्रोता संशय में पड़ जाता है । वक्ता अपने सहजभाव से अनेकार्थवाचक शब्द का प्रयोग करता है । वह संशयकरणी व्यवहार-भाषा अनाचीर्ण नहीं है, किन्तु आशय को छिपाकर दूसरों को भ्रम में डालने के लिए अनेकार्थ शब्द का प्रयोग (जैसे-अश्वत्थामा हतः) किया जाए वह संशयकरणी व्यवहार-भाषा अनाचीर्ण है अथवा जो शब्द सामान्यतः संदिग्ध हों-सन्देह-उत्पादक हों उनका प्रयोग भी अनाचीर्ण है।
टीकाकार ने चौथे श्लोक में सत्यासत्य', सावद्य एवं कर्कश सत्य और पांचवें में असत्य का निषेध बतलाया है, किन्तु वह आवश्यक नहीं लगता। वे सर्वथा त्याज्य हैं, इसलिए उनके पुनर् निषेध की कोई आवश्यकता नहीं जान पड़ती। असत्य-भाषा सावध ही होती है इसलिए सावध आदि विशेषणयुक्त असत्य के निषेध का कोई अर्थ नहीं होता।
५. उस अनुज्ञात असत्याऽमृषा को भी ( स भासं सच्चमोसं पितं पिघ) :
अगस्त्यसिंह स्थविर इस श्लोक में सत्य और असत्यामृषा का प्रतिषेध बतलाते हैं । जिनदास महत्तर असत्यामृषा का प्रतिषेध बतलाते हैं और टीकाकार सत्य तथा सत्य-मृषा का निषेध बतलाते हैं ।
हमारी धारणा के अनुसार ये दोनों श्लोक तीसरे श्लोक के 'असंदिग्ध' शब्द से संबन्धित होने चाहिए --- वह व्यवहार और सत्यभाषा अनाचीर्ण है जो संदिग्ध हो । अगस्त्य चूणि के आधार पर इसका अनुवाद यह होगा --यह ( सावद्य और कर्कश ) अर्थ या इसी प्रकार का दूसरा ( सक्रिय, आस्नवकर और छेदनकर आदि ) अर्थ जो शाश्वत मोक्ष को भग्न करे, उस असत्यामृषा-भाषा और सत्यभाषा का भी धीर पुरुष प्रयोग न करे। ६. यह ( एयं क ):
____ दोनों चूर्णिकार और टीकाकार 'एयं' शब्द से सावध और कर्कश वचन का निर्देश करते हैं। ७. दूसरा ( अन्नं क ):
अगस्त्यासह स्थविर अन्य शब्द के द्वारा सक्रिय, आस्नवकर और छेदनकर आदि का ग्रहण करते हैं । इसकी तुलना आयारचूला (४११०) से होती है। वहाँ भाषा के चार प्रकारों का निरूपण करने के पश्चात् बतलाया है कि मुनि सावध, सक्रिय, कर्कश, कटुक,
१-पन्न० भा० ११ सू० १६५। २–दश० नि० गाथा २७७; हा० टी०प० २१०; संशयकरणी च भाषा-अनेकार्थसाधारणा योच्यते सैन्धवमित्यादिवत् । ३-हा० टी० प० २१३ : साम्प्रतं सत्यासत्यामृषाप्रतिषेधार्थमाह । ४-हा० टी० प० २१४ : साम्प्रतं मृषाभाषासंरक्षणार्थमाह । ५.-अ. चू० पृ० १६५ : सा पुण साधुणो अब्भणुण्णतात्ति सच्चा,'' 'असच्चामोसा मपि तं पढममम्भणुण्णतामवि । ६-जि० चू० पू० २४५-२४६ : स भिक्खू ण केवलं जाओ पुत्वभणियाओ सावज्जभासाओ वज्जेज्जा, किन्तु जावि असच्चमोसा
भासा तमवि धीरो विविहं अणेगप्पगारं वज्जए विवज्जएत्ति । ७ हा० टी० प० २१३ : 'स' साधुः पूर्वोक्तभाषाभाषकत्वेनाधिकृतो भाषां 'सत्यामृषामपि' पूर्वोक्ताम्, अपिशब्दात्सत्यापि या
तथाभूता तामपि 'धीरो' बुद्धिमान् ‘विवर्जयेत' न ब्रूयादिति भावः । -(क) अ० चू० पृ० १६५ : एतमितिसावजं कक्कसं च । (ख) जि० चू०प० २४५ : एयं सावज्जं कक्कस च ।
(ग) हा० टी०५० २१३ : 'एत' चार्थम्' अनन्तरप्रतिषिद्ध सावद्यकर्कशविषयम् । ६-अ० चू० पृ० १६५ : अण्णं सकिरियं अण्हयकरी च्छेदनकरी एवमादि ।
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