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दसवेआलियं ( दशवैकालिक )
अध्ययन ७: श्लोक ५ टि०८-६ निष्ठुर, परुष, आस्न बकरी, छेदन करी, भेदनकरी, परितापन करी और भूतोपघातिनी रात्य-भाषा भी न बोले' । वृत्तिकार शीलाङ्कसूरि ने लिखा है ... मृषा और सत्य-मृषा भाषा मुनि के लिए सर्वथा अपाच्य है । कर्कश आदि विशेषणयुक्त सत्य-भाषा भी उसे नहीं बोलनी चाहिए।
८. ( सासयं ):
अगस्त्य चूणि और टीका में इसका अर्थ मोक्ष है । हमने इसका अर्थ स्वाशय अपना आशय किया है। जिनदास चूणि के अनुसार सासव' का अर्थ स्वाथव -अपना श्रीता होना चाहिए । आस्रव का अर्थ थोता भी है। इसका अर्थ वचन, प्रतिज्ञा और अंगीकार भी है। इसलिए इसका अर्थ अपना वचन, प्रतिज्ञा या अंगीकार भी हो सकता है ।
श्लोक ५:
६. श्लोक ५:
इस श्लोक में बतलाया गया है कि सफेद भूठ बोलने वाला पाप से स्पृष्ट होता ही है, किन्तु वस्तु का यथार्थ निर्णय किए बिना सत्य लगने वाली असत्य वस्तु को सहसा सत्य कहने वाला भी पाप से बच नहीं पाता। इसलिए सत्य-भाषी पुरुष को अनुविचिन्त्य भाषा (सोच-विचार कर बोलने वाला) और निष्ठा-भाषी (निश्चयपूर्वक बोलने वाला) होना चाहिए । इस श्लोक की तुलना आयारचूला (४१३) से होती है।
अगस्त्यासह स्थविर वितथ का अर्थ अन्यथावस्थित करते है । जिनदास महत्तर अतद्रूप वस्तु को वितथ' कहते हैं।
टीकाकार 'वितथ' का अर्थ 'अतथ्य' करते हैं । मूर्ति का अर्थ दोनों चूर्णिकारों के अनुसार शरीर" और टीकाकार के अनुसार स्वरूप है।
अगस्त्यसिंह स्यविर ने 'अपि' शब्द को 'भी' के अर्थ में लिया है। जिनदास महत्तर 'अपि' शब्द को संभावना के अर्थ में ग्रहण करते हैं१३ । हरिभद्रसूर 'अपि' का अर्थ 'भी' मानते हैं किन्तु उसे तथामूर्ति के आगे प्रयुक्त मानते हैं।४ ।
____ अगस्त्य सिंह स्थविर के अनुसार इस श्लोक के पूर्वार्ध का अर्थ होता है --(१) जो पुरुष अन्ययावस्थित, किन्तु किसी भाव से तथाभूतरूप वाली वस्तु का आश्रय ले कर बोलना है; (२) जिनदास महत्तर के अनुसार इसका अर्थ है ---जो पुरुष वितथ-भूति वाली वस्तु का
१.... आ० चू० ४.१० : तहप्पगारं भासं सावज्जं सकिरियं करकसं कड्डयं निदुर फरुतं अण्यकरि छेपणकार भेयणकरि
परित्तावणकरि उद्दवणरि भूओवघाइयं अभिकंख नो भासेज्जा। २–आचा० ४.१० ०० : तत्र मृषा सत्यामृषा च साधूनां तावन्न वाच्या, सत्याऽपि या कर्कशादिगुणोपेता सा न वाच्या। ३- (क) अ० चू० पृ० १६५ : सासतो मोक्खो।
(ख) हा० टी० ५० २१३ : शाश्वतम् मोक्षम् । ४. जि. चू०प०२४५ : जहा जं थोवमवि थुणणादि तं च सोयारस्स अप्पियं भवइ । ५ पाइयसद्दमहष्णव पृ० १५७ । ६- वृहद् हिन्दी कोष ।। ७ - अ० चू० पृ० १६५ : अतथा वितहं - अण्णहावत्थितं । ८-जि० पू० पृ० २४६ : बितहं नाम जं वत्थं न तेण सगावेण अस्थि तं वितह भण्णइ । ९- हा० टी०प० २१४ : वितथम्' अतथ्यम् । १०-अ० चू० पृ० १६५, जि० चू० पृ० २४६ : 'मुत्ती सरीरं मण्णइ ।' ११-हा० टी० प० २१४ : 'लथाभू प' कथंचित्तत्स्वरूपमपि वस्तु । १२ अ० चू० पृ० १६५ : अविसण केणतिभावेण तथाभूतमवि । १३ -जि० चू० पृ० २४६ : अविसदो संभावणे । १४-हा० टी०प०२१४ : अपिशब्दस्य व्यवहितः सम्बन्धः ।
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