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वक्कसुद्धि ( वाक्यशुद्धि )
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अध्ययन ७ : श्लोक ६ टि०१० आश्रय लेकर बोलना है और (३) हरिभद्रसूरि के अनुसार इसका अर्थ होता है -तथामूर्ति होते हुए भी जो वितथ हो, उसका आश्रय लेकर जो बोलता है।
चूणिकार और टीकाकार के उदाहरणों में बहुत बड़ा अन्तर है । अगस्त्यचूणि के अनुसार स्त्री-वेषधारी पुरुष को देखकर यह कहना कि स्त्री सुन्दर है। जिनदास चूणि के अनुसार स्त्री-वेषधारी पुरुष को देखकर यह कहना कि स्त्री गा रही है, नाच रही है, बजा रही है, जा रही है तथा पुरुष-वेषधारी स्त्री को देखकर यह कहना कि पुरुष गा रहा है, नाच रहा है, बजा रहा है, जा रहा है—सदोष है। टीका के अनसार 'पुरुष-वेषधारी स्त्री को स्त्री कहना सदोष है। चूणिकार वेष के आधार पर किसी को पुरुष या स्त्री कहना सदोष मानते हैं और टीकाकार इसे निर्दोष मानते हैं । यह परस्पर विरोध है ।
खुणि---पुरुष = स्त्रीवेष = स्त्री = सदोष
स्त्री = पुरुषवेष = पुरुष = सदोष
टीका-स्त्री = पुरुषवेष =: स्त्री = सदोष रूप-सत्य भाषा की अपेक्षा टीकाकार का मत ठीक लगता है। उनकी दृष्टि से पुरुष-वेषधारी स्त्री को पुरुष कहना चाहिए, स्त्री नहीं, किन्तु सातवें श्लोक की टीका में उन्होंने लिखा है कि जहाँ किसी व्यक्ति के बारे में उसके स्त्री या पुरुष होने का निश्चय न हो तब 'यह पुरुप है' ऐसा कहना वर्तमान शंकित भाषा है। इससे चूर्णिकार के मत की ही पुष्टि होती है। वे उसको सन्देह-दशा की स्थिति में जोड़ते हैं । नाटक आदि के प्रसङ्ग में जहाँ वेष-परिवर्तन की संभावना सहज होती है वहाँ दूसरों को भ्रम में डालने के लिए अथवा स्वयं को सन्देह हो वैसी स्थिति में तथ्य के प्रतिकूल, केवल वेष के अनुसार, स्त्री या पुरुष कहना सदोष है।
सत्य-भाषा का चौथा प्रकार रूप-सत्य है। जैसे प्रवजित रूपधारी को प्रवजित कहना 'रूप-सत्य सत्य भाषा' है । इस श्लोक में बतलाया है कि परिवर्तित वेष वाली स्त्री को स्त्री नहीं कहना चाहिए। इसका तात्पर्य यही है कि जिसके स्त्री या पुरुष होने में सन्देह हो उसे केवल बाहरी रूप या वेष के आधार पर स्त्री या पुरुष नहीं कहना चाहिए किन्तु उसे स्त्री या पुरुष का वेष धारण करने वाला कहना चाहिए । आयारचूला से भी इस आशय की पुष्टि होती है।
श्लोक ६
१०. इसलिए ( तम्हा क ) :
यत और तत् शब्द का नित्य सम्बन्ध है । अगस्त्यसिंह ने इनका सम्बन्ध इस प्रकार मिलाया है-संदिग्ध वेष आदि के आधार पर बोलना भी सदोष है। इसलिए मृपावाद की संभावना हो वैसी शंकित भाषा नहीं बोलनी चाहिए ।
हरिभद्रसूरि के अनुसार सत्य लगने वाली असत्य वस्तु का आश्रय लेकर बोलने वाला पाप से लिप्त होता है, इसलिए जहाँ मृषावाद की संभावना हो वैगी शंकित भाषा नहीं बोलनी चाहिए। तात्पर्य यह है कि पूर्व इलोकोक्त वेष-शंकित भाषा बोलने वाला पाप से लिप्त होता है, इसलिए क्रिया-शंकित भाषा नहीं बोलनी चाहिए।
१- अ० पू० पृ० १६५ : जहा पुरिसमिस्थिनेवत्थं भणति - सोभणे इत्थी एवमादि । २ -जि० चू० पृ० २४६ : तस्थ पुरिसं इथिणेवत्थियं इत्थि वा पुरिसनेवत्थियं दळूण जो भासई-इमा इत्थिया गायति णच्चइ'
वाएइ गच्छइ, इमो या पुरिसो गायइ णच्चइ वाएति गच्छइत्ति । ३ ० टी०प०२१४ : पुरुषनेपथ्यस्थितवनिताद्यप्यङ्गीकृत्य यां गिरं भाषते नरः, इयं स्त्री आगच्छति गायति वेत्यादिरूपाम । ४ ..हा० टी० प० २१४ : साम्प्रतार्थे स्त्रीपुरुषाविनिश्चये एष पुरुष इति । ५.पन्न पद ११॥ ६-० ० ४।५ : इत्थी बेस, पुरिस वेस, नपुंसग वेस एयं वा चेयं अन्नं वा चेयं अणुवीइ णिट्ठाभासी, समियाए संजए भासं
भासेज्जा वृत्त -तथा स्त्रयादिके दृष्टे सति स्त्र्येवैषा पुरुषो वा नपुसकं वा, एवमेवैतदन्यद्वैतत्, एवम् ‘अणुविचिन्त्य' निश्चित्य निष्ठाभाषी
मन समित्या समतया संयत एव भाषां भाषेत । ७. अ० चू० पृ० १६६ : जतो एवं नेवच्छादीण य संवि? वि दोसो, तम्हा । ८-हा० टी० प० २१४ : 'तम्ह' त्ति सूत्रं, यस्माद्वितथं तथामूर्त्यपि वस्त्वङ्गीकृत्य भाषमाणो बद्धयते तस्मात् ।
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