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________________ दसवेलियं ( दशवैकालिक ) # अध्ययन १०: श्लोक १४ टि० ४७-४६ व्यवहार भाष्य में वोसट्ट, निसटू और चत्त- इन तीनों का भी एक साथ प्रयोग मिलता है' । तप के बारह प्रकारों में व्युत्सर्ग एक प्रकार का तप है । उसका संक्षिप्त अर्थ है - शरीर की चेष्टाओं का निरोध और विस्तृत अर्थ है - गण (सहयोग), शरीर, उपधि और भक्त-पान का त्याग तथा कषाय, संसार और कर्म के हेतुओं का परित्याग । शरीर, उपधि और भक्त पान के व्युत्सर्ग का अर्थ इस प्रकार है : शरीर की सार-सम्हाल को त्यागना या शरीर को स्थिर करना काय व्युत्सर्ग कहलाता है। एक वस्त्र और एक पात्र के उपरान्त उपधि न रखना अथवा पात्र न रखना तथा चुल्लुपट्ट और कटिबन्ध के सिवाय उपधि न रखना उपधि-व्युत्सगं है। अनशन करना भक्तपान व्युत्सर्ग है । निशीथ माध्य में संलेखना व्युत्सृष्टव्य और व्युत्सृष्ट के तीन-तीन प्रकार बतलाये हैं । वे आहार, शरीर और उपकरण हैं । भगवान् महावीर ने अभिग्रह स्वीकार किया तब शरीर के ममत्व और परिकर्म के परित्याग की संकल्प की भाषा में उन्होंने कहा— 'मैं सब प्रकार के उपसर्गों को सहन करूंगा।' यह उपसर्ग-सहन ही शरीर का वास्तविक स्थिरीकरण है और जो अपने शरीर को उपसगों के लिए समर्पित कर देता है, उसी को व्रसृष्ट-देह कहा जाता है भगवान् ने ऐसा किया था। भिक्षु को बार-बार देह का व्युत्सर्गं करना चाहिए। इसका अर्थ यह है कि उसे काया स्थिरीकरण या कायोत्सर्ग और उपसर्ग ह का अभिग्रह करते रहना चाहिए। ४७. पृथ्वी के समान सर्वसह ( पुढवि समे ) : पृथ्वी आोश, हनन और भक्षण करने पर भी द्वेष नहीं करती, सबको सह लेती है उसी प्रकार भिक्षु आकोश आदि को निर सहन करे" | भाव से ४८. जो निदान नहीं करता ( अनियाणे प ) : जो ऋद्धि आदि के निमित्त तप-संयम नहीं करता जो भावी फलाशंसा से रहित होता है, जो किए हुए तप के बदले में ऐहिक प की कामना नहीं करता, उसे अनिदान कहते हैं । श्लोक १४: क ४६. शरीर ( कारण ) : अधिकांश परीष काया से सहे जाते हैं, इसलिए यहां काया से परीपों को जीतकर ऐसा कहा है बौद्ध आदि मन को ही सद १-व्य० भा० बोसटुनिसबतदेहाओ । २-- उत्त० ३०.३६ : सयणासणठाणे वा जे उ भिक्खु न वावरे । कायस्स विउस्सग्गो छट्टो सो परिकित्तिओ || ३- भग० २५.७ : औप० तपोधिकार । ४ - भग० जोड़ २५.७ । : याचा १७२० लिहितं पिवतिविधं योसिरियध्वं चतिवियो ६-- नि० चू० : आहारो सरीरं उवकरणं च । । ७--आ० चू० १५.३४ : तओ णं समजे भगवं महावीरे इमं एयारूवं अभिग्गहं अभिगिव्हइ-- वारसवासाई वोसट्टकाए चित्तदेहे जे केइ उवसग्गा समुपज्जेति, तंजहा - दिग्वा वा मागुस्सा वा तेरिच्छिया वा ते सव्वे उवसग्गे समुत्पन्ने समापे सम्म तहिस्सामि मिस्सामि असइस्लामि Jain Education International ८ - जि० ० पृ० ३४४ : जहा पुढवी अक्कुस्समाणी हम्ममाणी भक्खिज्जपाणी च न य किचि पओसं वहइ, तहा भिक्खुणावि सव्वकास - विसघेण होयव्वं । ६ - जि० चू० पृ० ३४५ : माणुस रिद्धिनिमित्तं तवसंजमं न कुव्वाइ, से अनियागे । १० - हा० टी० प० २६७ : 'अनिदानो' भाविफलाशंसारहितः । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003625
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Dasaveyaliyam Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1974
Total Pages632
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_dashvaikalik
File Size17 MB
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