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________________ स- ( सभिक्षु ) E मुद्रा में स्थित हो श्मशान में ध्यान करने की परम्परा जैन मुनियों में रही है। इसका सम्बन्ध उसी से है । मानिकाङ्ग बौद्ध भिक्षुओं का ग्यारहवाँ धुताङ्ग है । देखिए -- विशुद्धिमार्ग पृ० ७५, ७६ । अध्ययन १० श्लोक १३ टि० ४४-४६ ४४. जो विविध गुणों और तपों में रत होता है ( विविहगुण तवोरए ग ): अगस्त्य चूर्णि के अनुसार बौद्ध भिक्षुओं को इमशानिक होना चाहिए। उनके आचार्यों का ऐसा उपदेश है । जिनदास चूर्ण के अनुसार सब वस्त्रधारी संन्यासी श्मशान में रहते हैं वे भी नहीं डरते । केवल श्मशान में रहकर नहीं डरना ही कोई बड़ी बात नहीं है । उसके साथ-साथ विविध गुणों और तपों में नित्य रत भी रहना चाहिए। निर्ग्रन्थ भिक्षु के लिए यह विशिष्ट मार्ग है । ४५. जो शरीर की आकांक्षा नहीं करता ( न सरीरं चाभिकंखई घ ) : भिक्षु शरीर के प्रति निस्पृह होता है। उसे कभी भी यह नहीं सोचना चाहिए कि मेरा शरीर उपसर्गों से बच निकले, मेरे शरीर को दुःख न हो, वह विनाश को प्राप्त न हो । श्लोक १३ : क ४६. जो मुनि बार-बार देह का व्युत्सर्ग और त्याग करता है ( असई बोसत बेहे जिसने शरीर का व्युत्सर्ग और त्याग किया हो, उसे व्युत्सृष्ट-त्यक्त देह कहा जाता है । व्युत्सर्ग और त्याग - ये दोनों लगभग समानार्थक हैं फिर भी आगमों में इनका प्रयोग विशेष अर्थ में रूढ़ है । अभिग्रह और प्रतिमा स्वीकार कर शारीरिक क्रिया का त्याग करने के अर्थ में व्युत्सर्ग का और शारीरिक परिकर्म (मर्दन, स्नान और विभूषा) के परित्याग के अर्थ में त्याग शब्द का प्रयोग होता है। जिनदास महत्तर ने वोस का केवल पर्याय शब्द दिया है। जो कायोत्सर्ग, मौन और ध्यान के द्वारा शारीरिक अस्थिरता से निवृत्त होना चाहता है, वह 'वोसिरइ' क्रिया का प्रयोग करता है । हरिभद्रसूरि ने प्रतिबन्ध के अभाव के साथ व्युत्सृष्ट का सम्बन्ध जोड़ा है" । व्यवहार भाष्य की टीका में भी यही अर्थ मिलता है" । न वा विणिस्सिज्जेज्जा । ): १- दशा० ७ । २- अ० चू० : जधा सक्कभिक्खुण एस उवदेसो मासाणिगेण भवितव्वं । ण य ते तम्मि विर्भेति तम्मतिणिसेधणत्थं विसेसिज्जति । ३ – जि० चू० पृ० ३४४ : जहा रत्तपडादीवि सुसाणेसु अच्छंति, ण य बीहिति, तप्पडिसेषणत्थमिदं भण्णइ । ४० टी० १० २६७ शरीरमभिकाङ्क्षते निस्पृहता वार्तमानिक भावि ५- जि० ० ० ३४४ ६०० बोसो सोय देहो नेग सो बोसो ७- अ० चू० : बोसट्ठी पडिमादिसु विनिवृत्तक्रियो । पहाणुमद्दणातिविभूषाविरहितो चत्तो । ८ ० चू० पृ० ३४४ : बोसट्ट ति वा वोसिरियति वा एगट्ठा । जि० Jain Education International व सरीरं तेहि उबसम्मोहि बाहिनमाणोऽवि अभिकंस, जहा जइ मम एवं सरीरं न दुषयाविज्जेजा, ६--आव० ४ : ठाणेणं, मोणेणं, झाणेणं, अप्पाणं वोसिरामि । १०हा० डी० १० २६७ पृष्टभावप्रतिबन्धाभावेन त्यस्तो विभुवाकरः। ११- व्य० भा० टी० : व्युत्सृष्टः प्रतिबन्धाभावतः त्यक्तः परिकर्मकरणतो देहो येन स व्युत्सृष्टत्यक्त देहः । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003625
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Dasaveyaliyam Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1974
Total Pages632
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_dashvaikalik
File Size17 MB
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