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दसवेआलियं ( दशवकालिक )
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अध्ययन १० : श्लोक १२ टि० ४०-४३
दुख:दायी होते हैं अत: कर्कश शब्द आदि ग्राम-कण्टक (इन्द्रिय-कण्टक) कहलाते है । जो व्यक्ति ग्राम में काँटे के समान चुभने वाले हों, उन्हें ग्राम-कण्टक कहा जा सकता है । संभव है ग्राम-कण्टक की भांति चुमन उत्पन्न करने वाली स्थितियों को ग्राम-कण्टक' कहा हो । यह शब्द उत्तराध्ययन (२.२५) में भी प्रयुक्त हुआ है :
सोच्चाणं फरसा भासा, दारुणा गामकंटगा।
तुसिणीउ उवेहेज्जा ण ताओ मणसीकरे ॥ ४०. आक्रोश वचनों, प्रहारों, तर्जनाओं ( अक्कोसपहारतज्जणाओ ख ) :
___ आक्रोश का अर्थ गाली है । चाबुक आदि से पीटना, प्रहार' और 'कर्मों से डर साधु बना है'- इस प्रकार भर्त्सना करना तर्जना' कहलाता है । जिनदास चूणि और टीका में आक्रोश, प्रहार, तर्जना को ग्राम-कण्टक कहा है। ४१. वेताल आदि के अत्यन्त भयानक शब्दयुक्त अट्टहासों को ( भयभेरवस संपहासे ग ):
भय-भैरव का अर्थ अत्यन्त भय उत्पन्न करने वाला है। 'अत्यन्त भयोत्पादक शब्द से युक्त संप्रहास उत्पन्न होने पर'- इस अर्थ में 'भयभेरवसद्दसंपहासे' का प्रयोग हुआ है। टीका में 'संप्रहास' को शब्द का विशेषण मान कर व्याख्या की है-जिस स्थान में अत्यन्त रौद्र भयजनक प्रहास सहित शब्द हो, उस स्थान में । मिलाएँ सुत्तनिपात की निम्नलिखित गाथाओं से--
भिक्खुनो विजिगुच्छतो भजतो रित्तमातनं । रुक्खमूलं सुसानं वा पब्बतानं गुहासु वा ॥ उच्चावचेसु सयनेसु कोवन्तो तत्थ भेरवा ।
येहि भिक्खु न वेधेय्य निग्धोसे सयनासने । (५४.४-५) ४२. सहन करता है ( सहइ क ): आक्रोश, प्रहार, वध आदि परीषहों को साधु किस तरह सहन करे, इसके लिए देखिए. -- उत्तराध्ययन २.२४-२७ ।
श्लोक १२ :
४३. जो श्मशान में प्रतिमा को ग्रहणकर ( पडिमं पडिवज्जिया मसाणे क ) :
__यहाँ प्रतिमा का अर्थ कायोत्सर्ग और आभग्रह (प्रतिज्ञा) दोनों संभव हैं। कुछ विशेष प्रतिज्ञाओं को स्वीकार कर कायोत्सर्ग की
१--जि० चू० १० ३४३ : जहा कंटगा सरोरानुगता सरीरं पडियंति तथा अणिट्टा विषयकंटका सोताई दियगामे अणुप्पविठ्ठा तमेव
ईदियं पीडयंति। २--हा० टी०प० २६७ : प्रहाराः कशादिभिः । ३-जि० चू० पृ० ३४३ : तज्जणाए जहा एते समणा किवणा कम्मभीता पन्वतिया एवमादि । ४-(क) जि० चू० पृ० ३४३ : ते य कंटगा इमे 'अक्कोसपहारतज्जणाओ। (ख) हा० टी०प० २६७ : 'ग्रामकण्टकान्' ग्रामा-इन्द्रियाणि तदुःखहेतवः कण्टकास्तान्, स्वरूपत एवाह-आक्रोशान्
__ प्रहारान् तर्जनाश्चेति । ५-(क) अ० चू० : पच्चवायो भयं । रोइं भैरवं वेतालकालिवादीण सद्दो। भयभेरवसद्देहि समेच्च पहसणं भयभेरवसहसंपहासो ।
तम्मि समुवस्थिते। (ख) जि० चू० पृ० ३४३-३४४ : भयं पसिद्ध, भयं च भेरवं, न सव्वमेव भयं भेरबं, किन्तु ?, तत्थवि जं अतीवदारुणं भयं तं
भेरवं भण्णइ, वेतालगणादयो भयभेरवकायेण महता सद्देण जत्थ ठाणे पहसति सप्पहासे, तं ठाणं भयभेरवसप्पहास
भण्णइ । ६-हा० टी०प० २६७ : 'भैरवभया' अत्यन्तरौद्रभयजनकाः शब्दाः सप्रहासा यस्मिन् स्थान इति गम्यते तत्तथा तस्मिन्,
वैतालादिकृतार्तनादाट्टहास इत्यर्थः । ७-हा० टी०५० २६७ : 'प्रतिमां' मासादिरूपाम् ।
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