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________________ स.भिक्खु (सभिक्षु) ४६१ अध्ययन १० : श्लोक ११ टि० ३५-३६ ३५. जिसको इन्द्रियाँ असुद्धत हैं ( निहुइंदिए ख ) : निभूत का अर्थ विनीत है । जिसकी इन्द्रियाँ विनीत हैं -उद्धत नहीं हैं, उसे निभृतेन्द्रिय कहा जाता है । ३६. जो संयम में ध्रुवयोगो है (संजमधुवजोगजुत्ते ग ) : ___'ध्रुव' का अर्थ अवश्यकरणीय और सर्वदा है। योग का अर्थ है-मन, वचन और काया। संयम में मन, वचन और काया-इन तीनों योगों से सदा संयुक्त रहने वाला ध्रुवयोगी कहलाता है। ३७. जो उपशान्त है ( उवसंते घ ) : इसक अर्थ अनाकुल, अव्याक्षिप्त और काया की चपलता आदि से रहित है। ३८. जो दूसरो को तिरस्कृत नहीं करता ( अविहेडए घ) : विग्रह, विकथा आदि के प्रसंगों में समर्थ होने पर भी जो ताड़ना आदि के द्वारा दूसरों को तिरस्कृत नहीं करता, उसे 'अविहेडक' कहा जाता है-यह चूणि की व्याख्या है । टीका के अनुसार जो उचित के प्रति अनादर नहीं करता, उसे 'अविहेडक' कहा जाता है। क्रोध आदि का परिहार करने वाला अविहेडक कहलाता है-यह टीका में व्याख्यान्तर का उल्लेख है । श्लोक ११: ३९. कांटे के समान चुभने वाले इन्द्रिय-विषयों ( गामकंटएक): विषय, शब्द, अस्त्र, इन्द्रिय, भूत और गुण के आगे समूह के अर्थ में ग्राम शब्द का प्रयोग होता है—यह शब्दकोश का अभिमत है" । आगम के व्याख्या-ग्रन्थों में ग्राम का अर्थ इन्द्रिय किया है। जो इन्द्रियों को कांटों की भांति चुमें, उन्हें ग्राम-कण्टक कहा जाता है। जैसे शरीर में लगे हुए कांटे उसे पीड़ित करते हैं, उसी तरह अनिष्ट शब्द आदि श्रोत्र आदि इन्द्रियों में प्रविष्ट होने पर उन्हें १--अ० चि० ३.६५ : विनीतस्तु निभृतः प्रश्रितोऽपि च । २-हा० टी० प० २६६ : 'निभृतेन्द्रियः' अनुद्धतेन्द्रियः । ३-अ० चू० : संजमे धुवो जोगो तदवस्सकरणीयाण संजमं धुवजोगो कायवायमणोमत्तण जोगेण जुत्ते संजमधुवजोगजुत्ते । ४-(क) जि० चू० पृ० ३४३ : 'धुवं' नाम सदवकालं । (ख) हा० टी० प० २६६ : 'ध्र वं' सर्वकालम् । ५-- जि० चू० पृ० ३४३ : संजमधुवजोगजुत्तो भवेज्जा, संजमो पुवभणिओ, 'धुवं' नाम सव्वकालं, जोगो मणसादि, तंमि संजमे सव्वकालं तिविहेण जोगेण जुत्तो भवेज्जा। ६.-जि० चू० पृ० ३४३ : ‘उवसंते' नाम अणाकुलो अव्वक्खित्तो भवेज्जत्ति । ७-हा० टी० प० २६६ : ‘उपशान्तः' अनाकुल: कायचापलादिरहितः । ८-(क) अ. चू० : परे विग्गहविस्थादिषसंगे सु सनत्यो वि ण तालणादिणा विहेढयति एवं स अविहेढए । (ख) जि० चू० पृ० ३४३ : 'अविहेडए' णाम जे परं अक्कोसतेप्पणादीहिं न विधेडयति से अविहेडए । ६-हा० टी० ५० २६६ : ‘अविहेठकः' न क्वचिदुचितेऽनादरवान्, क्रोधादीनां विश्लेषक इत्यन्ये । १०- अ० चि० ६.४६ : ग्रामो विषयशब्दाऽस्त्रभूतेन्द्रियगुणाद् व्रजे । ११-(क) जि० चू० पृ० ३४३ : गामगहणेण इदियगहण कयं ।' (ख) हा० टी०प० २६७ : ग्रामा - इन्द्रियाणि । Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003625
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Dasaveyaliyam Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1974
Total Pages632
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_dashvaikalik
File Size17 MB
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