SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 541
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ दसवेआलियं ( दशवकालिक ) ४६० अध्ययन १०: श्लोक-१० टि० ३१-३४ ग्लोक: ३१. सार्मिकों को ( साहम्मियाण ग): सार्मिक का अर्थ समान-धार्मिक साधु है' । साधु भोजन के लिए विषम-भोगी साधु तथा गृहस्थ को निमन्त्रित नहीं कर सकता। अपने संघ के साधुओं को–जो महाव्रत तथा अन्य नियमों की दृष्टि से समान-धर्मी हैं, उन्हें ही निमंत्रित कर सकता है। ३२. निमन्त्रित कर ( छंदिय ग) : छंद का अर्थ इच्छा है । इच्छापूर्वक निमन्त्रित कर---यह 'छंदिय' का अर्थ है । इसका भावार्थ है--जो आहार आदि प्राप्त किया हो उसमें समविभाग के लिए समान-धर्मा साधुओं का निमन्त्रित करना चाहिए और यदि कोई लेना चाहे तो बांटकर भोजन करना चाहिए । इस नियम के अर्थ को समझने के लिए देखिए-५.१.६४,६५,९६ का अर्थ और टिप्पण । श्लोक १०: ३३. कलहकारी कथा ( बुग्गहियं कहं क ) : विग्रह का अर्थ कलह, युद्ध या विवाद है। जिस कथा, चर्चा या वार्ता से विग्रह उत्पन्न हो, उसे वैग्रहिकी-कथा कहा जाता है। अगस्त्य चणि के अनुसार अमुक राजा, देश या और कोई ऐसा है-इस प्रकार की कथा नहीं करनी चाहिए। प्रायः ऐसा होता है कि एक व्यक्ति किसी के बारे में कुछ कहता है और दूसरा तत्काल उसका विरोध करने लग जाता है। बात ही बात में विवाद बढ़ जाता है, कलह हो जाता है। जिनदास चूणि और टीका में इसका अर्थ कलह-प्रतिबद्ध-कथा किया है। सारांश यह है कि युद्ध-सम्बन्धी और कलह या विपाद उत्पन्न करने वाली कथा नहीं करनी चाहिए। सुत्तनिपात (तुवटक-सुत्तं-५.२.१६) में भिक्षु को शिक्षा देते हुए प्रायः ऐसे ही शब्द कहे गये हैं : न च कत्थिता सिया भिक्खु, न च वाचं पयतं भासेय्य । 'पागभियं' न सिक्खेय्य, कथं विग्गाहिकं न कथयेय्य ।। भिक्षु धर्मरत्न ने चतुर्थ चरण का अर्थ किया है—कलह की बात न करे। गुजराती अनुवाद में (प्र० २०१) अ० धर्मानन्द कोसम्बी ने अर्थ किया है-'भिक्षु को वाद-विवाद में नहीं पड़ना चाहिए।' ३४. जो कोप नहीं करता ( न य कुप्पे ख): ___ इसका आशय है कि कोई विवाद बढ़ाने वाली चर्चा छेड़े तो उसे सुन मुनि क्रोध न करे अथवा चर्चा करते हुए कोई मतवादो कुतर्क उपस्थित करे तो उसे सुन क्रोध न करे । १-अ० चू० : साधम्मिया समाणधम्मिया साधुणो। २-(क) अ० चू० : छंदो इच्छा इच्छाकारेण जोयणं छंदणं । एवं छंदिय । (ख) हा० टी० ५० २६६ : 'छन्दित्वा' निमन्त्र्य । ३.---जि० चू०१० ३४३ : अणुग्गहमिति मन्नमाणो धम्मयाते साहम्मियाते छंदिया भुंजेज्जा छंदिया णाम निमंतिऊण, जइ पडिगाहता तओ तेसि दाऊण पच्छा सयं भुजेज्जा। ४.--अ० चू० : विग्गहो कलहो। तम्मि तस्स वा कारणं विग्गहिता जधा अमुगो, एरिसो रायादेसो वा । एत्थ सज्जं कलहो समुपज्जति। ५-(क) जि० चू० पृ० ३४३ : बुग्गहिया नाम कुसुम (कलह) जुत्ता, तं वुग्गहियं कहं णो कहिज्जा । (ख) हा० टी० प० २६६ : न च 'वैग्रहिकों' कलहप्रतिबद्धां कथा कथयति । ६-(क) अ० चू० : जति वि परो कहेज्ज तधावि अम्हं रायाणं देसं वा जिंदसित्ति ण कुप्पेज्जा । वादादौ सयमवि कहेज्जा विग्गह कहं ण य पुण कुप्पेज्जा। (ख) जि० चू० ए० ३४३ : जयावि केणई कारणेण वादकहा जल्पक हादी कहा भवेज्जा, ताहे तं कुब्वमाणो नो कुप्पेज्जा। Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003625
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Dasaveyaliyam Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1974
Total Pages632
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_dashvaikalik
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy