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________________ स-भिक्खु ( सभिक्षु ) ४८४ अध्ययन १०: श्लोक ८ टि० २७-३० सम्यग्-दृष्टि बने रहने के लिए आवश्यक है कि वह अमूढ़ बना रहे। ज्ञान, तप और संयम हैं-यह श्रद्धा अमूढदृष्टि के ही होती है। मूढ़-दृष्टि को इस तत्व-त्रयी में विश्वास नहीं होता। इसलिए भिक्षु को अमूढ़ रहना चाहिए। २७. ( अस्थि हु ख ): 'ज्ञान, तप और संयम जिनशासन में ही हैं, कुप्रवचनों में नहीं हैं'- इस प्रकार भिक्षु को अमूढ़ दष्टि होना चाहिए। यह जिनदास चूणि में 'अत्थि हु' का अर्थ किया है और टीका में—'ज्ञान, तप और संयम है' भिक्षु अमूढ़ भाव से इस प्रकार मानता है यह किया है। २८. मन, वचन तथा काय से सुसंवृत ( मणवयकायसुसंबुडे घ): अकुशल मन का निरोध अथवा कुशल मन की उदीरणा करना मन से सुसंवृत होना है। अकुशल मन का निरोध और प्रशस्त वचन की उदीरणा अथवा मौन रहना वचन से सुसंवृत होना है। विहित नियमों के अनुसार आवश्यक शारीरिक क्रियाएँ करना—काया से अकरणीय क्रियाएँ नहीं करना—काय से सुसंवृत होना है। श्लोक ८: २८. परसों ( परे ग ): इसका मूल परे' है । टीका में इसका अर्थ 'परसों' किया है। और जिनदास धूणि में तीसरा, चौथा आदि दिन किया है। ३०. न सन्निधि (संचय) करता है ( न निहे ५ ) : जिनदास महत्तर ने इसका अर्थ किया है -वासी नहीं रखता । टीका में इसका अर्थ है-- स्थापित कर नहीं रखता। भावार्थ है --संग्रह नहीं करता। इस श्लोक के साथ मिलाएं: अन्नामथो पानानं खादनीयानमथोऽपि वत्थानं । लद्धान सन्निधि कयिरा, न च परित्तसे तानि अलभमानो। सुत्तनिपात ५२-१० । १-(क) अ० चू० : परतिथिविभवादोहि अमूढे। (ख) जि० चू० पृ० ३४२ : अण्णतिथियाण सोऊण अणेसि रिद्धीओ दढ ण अमूढो भवेज्जा, अहवा सम्मद्दिट्ठिणा जो इदाणी अत्थो भण्णइ तंमि अत्थि सया अमूढा दिट्ठी कायव्वा । (ग) हा० टी०प० २६६ : 'अमूढः' अविप्लुतः। २-जि० चू० पृ० ३४२ : जहा अस्थि हु जोगे नाणे य, तस्स णाणस्स फलं संजमे य, संजमस्स फलं, ताणि य इमंमि चेव जिण. वयणे संपुष्णाणि, णो अण्णेसु कुप्पावयणेसुत्ति । ३-हा० टी०प० २६६ : 'अमूढ़ः' अविप्लुत : सन्नेवं मन्यते--अस्त्येव ज्ञानं हेयोपादेयविषयमतीन्द्रियेष्वपि तपश्च बाह्याभ्यन्तरकर्म मलापनयनजलकल्पं संयमश्च नवकर्मानुपादानरूपः । ४ -जि० चू० पृ० ३४२ : मणवयणकायजोगे सुठ्ठ संवुडेत्ति, कहं पुण संवुडे ?, तत्थ मगेणं ताव अकुसलमणणिरोध करेइ. कुसलमणो दीरणं च, वायाएवि पसत्थाणि वायणपरियट्टयाईणि कुब्वइ, मोणं वा आसेवई कारण सयणासणदागणवे पणट्ठाणचक्कम णा इसु कायचेद्वाणियमं कुब्वति, सेसाणि य अकरणिज्जाणि य ण कुब्वइ । ५-हा० टी० प० २६६ : परश्वः । ६—जि० चू० पृ० ३४२ : परग्गहणेण तइयचउत्थमादीण दिवसाण गहणं कयं । ७-जि० चू० पृ० ३४२ : 'न निहे न निहावए' णाम न परिवासिज्जत्ति वुत्तं भवति । ८-हा० टी० प० २६६ : 'न निघत्ते' न स्थापयति । Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003625
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Dasaveyaliyam Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1974
Total Pages632
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_dashvaikalik
File Size17 MB
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