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दसवेआलियं ( दशवेकालिक )
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अध्ययन १० इलोक ६-७ टि० २३ २६
यहां पांच आस्रव से स्पर्शन आदि विवक्षित हैं । अगस्त्य पूर्णि में 'संवरे' पाठ है और जिनदास घूर्णि एवं टीका में वह 'संवर' के रूप में व्याख्यात है ।
इलोक ६ :
२३. योगी ( ध्रुवजोगी)
अगस्त्य पूर्ण के अनुसार जो वृद्ध (तीर) के वचनानुसार मानसिक, वाचिक और कायिक प्रवृत्ति करने वाला हो, प्रतिलेखन आदि आवश्यक कार्यों को नियमित रूप से करने वाला हो, वह 'ध्रुवयोगी' कहलाता है। कहा भी है- जिनशासन बुद्धों के वचनरूप द्वादशाङ्गीगणी पिक में जिसका योग ( मन, वचन और काया ) हो, जो पाँच प्रकार के स्वाध्याय में रत हो, जिसके धन (चत पद ) आदि न हों, यह 'योगी'।
जिनदास महत्तर के अनुसार जो क्षण, लव और मुहूर्त में जागरूकता आदि गुणयुक्त हो, प्रतिलेखन आदि संयम के कार्य को नियमित रूप से करने वाला हो, सावधान होकर मन, वचन और काया से प्रवृत्ति करने वाला हो, बुद्ध वचन ( द्वादशाङ्गी ) में निश्चल योगवाला हो, सदा श्रुत में उपयुक्त हो, वह 'ध्रुवयोगी' कहलाता है* ।
२४. गृहियोग ( गिहिजोगं घ ) :
धूर्णियों में गृहियोग का अर्थ पचन-पाचन, क्रय-विक्रय आदि किया है। हरिभद्रसूरि ने इसका अर्थ- मूर्च्छावश गृहस्थ-सम्बन्ध किया है।
श्लोक ७:
क
२५. सम्यक दर्शी ( सम्मट्ठी
जिसका जनप्रतिपादित जीव आदि पदार्थों में सम्य-विश्वास होता है, उसे सम्यदर्शी दृष्टि कहा जाता है ।
- सम्यक्
२६. अमूढ़ है ( अमूढ़े क )
मिथ्या विश्वासों में रत व्यक्तियों का वैभव देखकर मूढ़ भाव लाने वाला अपने दृष्टिकोण को सम्यक् नहीं रख सकता। इसलिए
१- अ० चू० : पंचासवदाराणि इंदियाणि ताणि आसवा चैव तानि संवरे ।
२ – (क) जि० चू० पृ० ३४१ : 'पंचासवसंवरे' नाम पंचिदियसंबुडे, जहा 'सद्देसु य भद्दयपावएसु सोयविसयं उबगएसु । तुट्ठ े व स्ट्रुम व समषेण समान होय ॥ एवं सभाप
(ख) हा० टी० ० २६५ पञ्चायतोऽपि पञ्चेन्द्रियसंताच
-अ० चू० : बुद्धा जा तेसि वयणं बुद्धवयणं तम्मि जोगो कायवातमणेमतं कम्म सो धुवो जोगो जस्स सो धुवजोगीति जोगेण विमान पुर्ण कदापि करेति कदापि न करेति भणितं च-
जहा करणीयमायुगपदि जो जोनो तर
जोगो जोगो जिणसासणंमि दुक्खबुद्धवयणे । दुवालसंगे गणिपिड धुवजोगी पंचविध सज्झायवरो ॥
४- जि० चू० पृ०३४१ धुवजोगी नाम जो खणलवमुहुत्तं पडिबुज्झमाणादिगुणजुत्तो सो धुवजोगी भवइ, अहवा जे पडिलेहणादि संजमजोगा तेसु धुवजोगी भवेज्जा, ण ते अण्णदा कुज्जा अहवा मणवयणकायए जोगे जुंजेमाणो आउत्तो जुंजेज्जा, अहवा बुद्धपालसंग भिजोगी भवेन्ना, सुञोवडतो सव्वकाल भ
५– (क) अ० ० गिहिजोगो-जो तेस वायारो पयणपयावणं तं ।
(ख) जि० चू० पृ० ३४२ : गिहिजोगो नाम पयणविक्कमादि । ६० डी० प० २६६हियोग'
७
गृहस्थसम्बन्धम् ।
-अ० चू० : सम्भावं सद्दहणा लक्खणा समादिट्ठी जस्स सो सम्मदिट्ठी ।
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