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दसवेआलियं ( दशवैकालिक)
अध्ययन ७ : श्लोक ५३-५४ टि. ८१-८३
८१. मानव ( माणवं क ):
यहाँ मानव (राजा) को देव कहने का निषेध किया गया है। टीकाकार के अनुसार मानव को देव कहने से मिथ्यावाद, लाघव आदि दोष प्राप्त होते हैं।
प्राचीन ग्रंथों में राजा को देव मानने की परम्परा रही है। रामायण में स्पष्ट उल्लेख है कि राजा देव हैं, वे इस पृथ्वी तल पर मनुष्य-शरीर धारण कर विचरण करते हैं :
तान्नहिस्यान्दचाक्रोशेन्नाक्षिपेन्नाप्रियं वदेत देवा मानुषरूपेण, चरन्त्येते महीतले ॥
(वाल्मिकीय रामायण, किष्किन्धाकाण्ड, सर्ग १८.४३) महाभारत के अनुसार राजा एक परम देव है जो मनुष्य रूप धारण कर पृथ्वी पर अवतरित होता है :
न हि जात्ववमन्तव्यो मनुष्य इति भूमिपः। महती देवता ह्यषा नररूपेण तिष्ठति ॥
(महाभारत, शांतिपर्व, अ० ६८.४०) मनुस्मृति में भी राजा को परमदेव माना गया है :
बालोऽपि नावमन्तव्यो, मनुष्य इति भूमिपः।
महती देवता ह्यषा, नररूपेण तिष्ठति ॥ (मनुस्मृति अ० ७.८) चाणक्य ने भी ऐसा ही माना है :
'न राज्ञः परं दैवतम्' (चाणक्य सूत्र ३७२)
श्लोक ५३ : ८२. श्लोक ५३ :
'अंतलिक्खे ति णं बूया गुज्झाणुजरिय त्तिय'- नभ और मेघ को अन्तरिक्ष अथवा गुह्यानुचरित कहे। अन्तरिक्ष और गुह्यानुचरित मेघ और नम दोनों के वाचक है । गुह्यानुपरित का अर्थ दोनों धूणिकारों ने नहीं किया है। हरिभद्रसूरि इसका अर्थ 'देवसेवित' करते हैं।
श्लोक ५४ : ८३. अवधारिणो (संदिग्ध अर्थ के विाय में असंदिग्ध) ( ओहारिणी ख ):
चूणियों में अवधारिणी का अर्थ शंकित भाषा अर्थात् संदिग्ध वस्तु के बारे में असं दिग्ध वचन बोलना किया गया है। टीका में इसका मूल अर्थ निश्चयकारिणी भाषा वैकल्पिक अर्थ संशयकारिणी भाषा किया गया है। दश० ६.३ के श्लोक ६ में आये हुए इस शब्द का अर्थ भी धूणि और टीका में ऐसा ही है ।
१-हा० टी० प० २२३ : 'भान' राजानं देव म त नो वदेत, मिथ्यावादलाधवादिप्रसङ्गात् । २-(क) जि० चू०प० २६३ : तत्व नभं अंतलिक्खंति वा वदेज्जा, गुज्झाणुचरितंति वा तं ....... मेहोवि अंतरिक्खो भण्णइ,
गुज्झगागुचरिओ भण्णइ। (ख) हा० टी०प० २२३ । ३-हा० टी० प० २२३ : गुह्यानुचरित पति वा, सुरसेवितमित्यर्थः । ४-- (क) अ० चू० पृ० १७८ : सं दसु एवदमिति निच्छयवयणमवधारणम् ।
(ख) जि० चू० पृ. २६३ : ओहारिणी णाम संकिया, भणियं-- से नूर्ण भंते ! मन्नामीति ओहारिणी भासा?, आलावगो। ५-हा० टी० ५०२२३ : 'अवधारिणी' इवमित्यमेवेति, संशयकारिणी वा। ६-(क) अ० चू० पृ० १७८ : ओधारिणी मसंदिद्धरुवं संदिद्धेवि भणितं च सेणूणं भंते ! मण्णामीति ओधारिणी भासा। (ख) जि० चू० पृ ३२१ : तत्थ ओहारिणी संकिया भणति, जहा एसो चोरो, पारदारिओ?, एवमादि, भणियं च 'से भन्ते!
मण्णामित्ति ओहारिणो मासा' आलावगो। (ग) हा० टी०प० २५४ : 'अवधारिणीम्' अशोभन एवायमित्यादिरूपाम् ।
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