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वक्कसुद्धि ( वाक्यशुद्धि )
७५. श्लोक ५१ :
जिसमें अपनी या दूसरों की शारीरिक सुख-सुविधा के लिए अनुकूल स्थिति के होने और प्रतिकूल स्थिति के न होने की आशंसा हो वैसा वचन मुनि न कहे - इस दृष्टि से यह निषेध है ।
७७. सुभिक्ष ( धायं ख ) :
७६. क्षेम ( खेमं):
शत्रु सेना तथा इस प्रकार का और कोई उपद्रव नहीं हो, तो उस स्थिति का नाम क्षेम है । व्यवहार भाष्य की टीका में क्षेम का अर्थ शुभ लक्षण किया है। उससे राज्य भर में नीरोगता व्याप्त रहती है ।
यह देशी शब्द है । इसका अर्थ है - सुभिक्ष* ।
७८. शिव (सिस) :
३६५
श्लोक ५१:
शिव अर्थात् रोग, मारी का अभाव, उपद्रव न होना ।
अध्ययन ७ श्लोक ५१-५२ टि०७५-८०
:
८०. नभ नह क ) :
(
श्लोक ५२ :
७६. श्लोक ५२ :
मेघ, नभ और राजा देव नहीं हैं। उन्हें देव कहने से मिध्यात्व का स्थिरीकरण और लघुता होती है, इसलिए उन्हें देव नहीं कहना
चाहिए।
वैदिक साहित्य में आकाश, मेघ और राजा को देव माना गया है किन्तु यह वस्तु-स्थिति से दूर है। जनता में मिथ्या धारणा न फैले, इसलिए यह निषेध किया गया है।
तुलना के लिए देखिए आयारचूला ४।१६,१७ ।
मिथ्यावाद से बचने के लिए 'आकाश' को देव कहने का निषेध किया गया है। प्रकृति के उपासक आकाश को देव मानते थे । प्रश्न- उपनिषद् में 'आकाश' को देव कहा गया है। आचार्य पिप्पलाद ने उससे कहा यह देव आकाश है वायु, अग्नि, जल, पृथ्वी, बाकू (सम्पूर्ण कर्मेद्रिय) मन (अन्तःकरण) और (ज्ञानेन्द्रिय समूह) (ये भी देव है) ये सभी अपनी महिमा को प्रकट करते
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हुए कहते हैं - हम ही इस शरीर को आश्रय देकर धारण करते हैं ।
१- अ० चू० पृ० १७७ एताणि सरीरसुहहेउं पयाणं वा आसंसमाणो णो वदे । २ (क) अ० ० ० १००
:
परचातिवं
(ख) हा० टी० १० २२२ 'क्षेम' राजविड्वरशून्यम् ।
३- व्य० उ० ३ गाथा २०६ : क्षेमं नाम सुलक्षणं यद् वशात् सर्वत्र राज्ये नोरोगता ।
४ – (क) अ० चू० पृ० १७७ : घातं सुभिक्खं ।
(ख) हा० टी० १० २२२ प्रातं सुभिक्षम् । ५-३० ० १० १७७ कुलरोगनारिविरहितं शिवम् । ६ - हा० टी० प० २२२ : 'शिव' मिति चोपसर्ग रहितम् ।
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७ - ( क ) अ० चू० पृ० १७८ : मिच्छत थिरीकरणादयो दोसा इति ।
(ख) जि० पू० पृ० २६२ तत्थ मितविरोकरादि दोसा भवति ।
(ग) हा० टी० १० २२३ : मिथ्यावादलाघवादिप्रसङ्गात् ।
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- प्र० उ० प्रश्न २.२ : तस्मै स होवाचाकाशो ह वा एष देवो वायुग्निरापः पृथिवी वाङमश्चक्षु श्रोत्रं च । ते प्रकाश्याभिवदन्ति वयमेतद् वाणमवष्टभ्य विधारयामः ।
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