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दसवेआलियं ( दशवकालिक )
अध्ययन ७: श्लोक ४७-५० टि०७१-७४
ने इसका अर्थ 'असक्क' (अशक्य) किया है।
हरिभद्रसूरि ने इसका अर्थ----असंस्कृत-दूसरी जगह सुलभ किया है । ७१. यह अचिन्त्य है ( अचितं घ ) :
अगस्त्य सिंह और जिनदास ने 'अचित' पाठ माना है । हरिभद्र मूरि' ने 'अचिअत्तं' पाठ मान कर उसका अर्थ अप्रीतिकर किया है।
श्लोक ४७:
७२. श्लोक ४७ :
असंयमी को आ-जा आदि क्यों नहीं कहना चाहिए ? इस प्रश्न के समाधान में चूर्णिकार कहते हैं -- अगंयमी पुरुष तपे हुए लोहे के गोले के समान होते हैं । गोले को जिधर से छूओ वह उधर से जला देता है वैसे ही असंयमी मनुष्य चारों ओर से जीवों को कष्ट देने वाला होता है । वह सोया हुआ भी अहिंसक नहीं होता फिर जागते हुए का तो कहना ही क्या ?
श्लोक ४८
७३. जो साधु हो उसो को साधु कहे ( साहुं साहु त्ति आलवे घ):
साधु का वेष धारण करने मात्र से कोई साधु नहीं होता, वास्तव में साधु वह होता है जो निर्वाण-साधक-योग की साधना करे।
उलोक ५०
७४. श्लोक ५०
अमक व्यक्ति या पक्ष की विजय हो, यह कहने से युद्ध के अनुमोदन का दोष लगता है और दूसरे पक्ष को द्वेष उत्पन्न होता है, इसजिग पनि को ऐसी भाषा नहीं बोलनी चाहिए।
१--(क) अ० चू० पृ० १७६ : अबक्कियमसक्क । (ख) जि० चू० पृ० २६० : अचक्कियं नाम असक्कं, जहा कइएण विकायएण वा पुच्छिओ इमस्स मोल्लं करेहित्ति, ताहे
भणियब्वं को एतस्स मोल्लं करेउं समत्थोत्ति, एवं अचक्कियं भण्णइ। २ हा० टी०प० २२१ : 'अविक्किअंति' असंस्कृतं सुलभमीदृशमन्यत्रापि । ३- अ० चू० पू० १७६ : अचितितं चितेतुं पि ण तीरति । ४- जि० चू० पृ० २६० : अचितं णाम ण एतस्स गुणा अम्हारिसेहिं पागएहि चितिज्जति । ५-हा० टी०प० २२१ : अचिअत्तं वा--अप्रीतिकरम् । ६-जि० चू० पृ० २६१ : अस्संजतो सब्वतो दोसमावहति चिट्ठतो तत्तायगोलो, जहा ततायगोलो जओ छिबइ ततो डहइ तहा
असंजओवि सुयमाणोऽवि णो जीवाणं अणुवरोधकारओ भवति, किं पुण जागरमाणोति । ७- जि. चू० पृ० २६१ : जे णिव्वाणसाहए जोगे साधयंति ते भाषसाधवो भक्षणति । ८-(क) जि. चू० पृ० २६२ : तत्थ अमुयाणं जतो होउत्ति भणिए अणुमइए दोसो भवति, तप्पक्खिओ वा पोसमावज्जेज्जा, अओ
एरिसं भासं णो वएज्जा । (ख) हा० टी०प० २२२ : 'अमुकानां' . 'जयो भवतु मा वा भवत्विति नो वदेद्, अधिकरण तत्स्वाम्यादि पदोषप्रसङ्गादिति ।
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