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सुद्धि (वाक्यशुद्धि)
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श्लोक ४१
६७. इलोक ४१
अगस्त्य वर्णि के अनुसार 'सुकृत' सर्व क्रिया का प्रशंसक ( अनुमोदक ) वचन है। इसी प्रकार 'सुपक्व' पाक-क्रिया, 'सुच्छिन्न' छेद क्रिया, 'सुहृत' हरण क्रिया, 'सुमृत' लीन-क्रिया, 'सुनिष्ठित' सम्पन्न क्रिया, 'सुलष्ट' शोभन या विशिष्ट क्रिया के प्रशंसक वचन हैं। दशकालिक पूर्णिकार और टीकाकार इनके उदाहरण भोजन विषयक भी देते हैं और सामान्य भी ।
उत्तराध्ययन के टीकाकार कमल संयमोपाध्याय इसके सारे उदाहरण भोजन-विषयक देते हैं । नेमिचन्द्राचार्य इन सारे प्रयोगों की भोजन विषयक व्याख्या कर विकल्प के रूप में सुपक्व शब्द को छोड़कर शेष शब्दों की सामान्य विषयक व्याख्या भी करते हैं । सुकृत आदि के प्रयोग सामान्य हो सकते हैं, किन्तु इस श्लोक में मुख्यतया भोजन के लिए प्रयुक्त है—ऐसा लगता है। आचाराङ्ग में कहा है -- भिक्षु बने हुए भोजन को देखकर 'यह बहुत अच्छा किया है - इस प्रकार न कहे ।
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के प्रस्तुत लोक की तुलना इसीसे होती है, इससे यह सहज ही जाना जाता है कि वहाँ ये सारे प्रयोग भोजन आदि
से सम्बन्धित है।
सुकृत आदि शब्दों का निरवद्य प्रयोग किया जा सकता है। जैसे- इसने बहुत अच्छी सेवा की, इसका वचन विज्ञान परिपक्व है । इसने स्नेह बन्धन को बहुत अच्छी तरह छेद डाला है आदि-आदि ।
६९. कर्म-हेतुक ( कम्महेयंग) :
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६८. बहुत अच्छा किया है ( सुकडे ति ) :
जिसे स्नेह, नमक, काली मिर्च आदि मसाले के साथ सिद्ध किया जाए वह 'कृत' कहलाता है। सुकृत अर्थात् बहुत अच्छा किया
हुआ ।
श्लोक ४२ :
अध्ययन ७ श्लोक ४१-४३ टि० ६७-७०
कर्महेतुक का अर्थ है-शिक्षापूर्वक या हुए हाथों से किया हुआ ।
श्लोक ४३ :
७०. इसका मोल करना शक्य नहीं है ( अचक्कियं ग ) :
हस्तलिखित (ख और ग) आदर्शों और अगस्त्य वर्णि में अचक्किय तथा कुछ आदर्शों में अविक्किय पाठ है । दोनों चूर्णिकारों
स० [सं०] १.३६ तम् अन्नादि पर्वतपूर्णादिभिन्नं पत्रकावि, सुहृतं शाकारितादिमृतं घृतादिपाद सुनिसिया निष्ठतम् सुष्टं शोभनं पादिखण्डोम्बलादि प्रकाररेवमन्यदपि साव वर्जयेत् मुनिः ।
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२ उत्त० ० १.३६ वृ० पाहतं यदनेनाऽरातेः प्रतिकृतं सुप पूर्ववत् सुनोऽयं योगादिः सुतं कवयंस्य धनं चौरादिभिः सुमृतोऽयं प्रत्यनीक धिवर्णादिः सुनिष्ठितोऽयं प्रासादादिः सुष्टोऽयं करितुरगादिरिति सामान्येनैव सायं बचो वर्जयेद् मुनिः ।
३--आ० चू० ४।२३ : से भिक्खु वा, भिक्खुणी वा असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा उवक्खडियं पेहाए, तहावि तं णो एवं जाति वा कति वा साकडे ति वा कहलाने तिबा करने ति वा एयप्यवारं भासं साव जाव णो भासेज्जा ।
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४--उत्त० ने० १.३६ वृ० : निरवद्यं तु सुकृतमनेन धर्मध्यानादि, सुपक्वमस्य वचन विज्ञानादि, सुच्छिन्नं स्नेहनिगडादि, सुहृतोऽयमुत्प्रव्राजयितुकामेभ्यो निजकेभ्य: शैक्षकः, सुमृतमस्य पण्डितमरणेन सुनिष्ठितोऽयं साध्वाचारे, सुलष्टोऽयं दारको व्रतग्रहणस्येत्यादिरूपम् ।
५ -- च० ( सू० ) : २७.२६४ की व्याख्या :
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'अस्नेहलवणं सर्वमकृतं कटुकै विना । विज्ञेयं लवणस्नेह- कटुकैः संस्कृतं कृतम् ॥'
६ - वि० ० ० २५९ कम्महेयं नाम सितापुव्यगति हुतं भवति ।
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