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दसवेआलियं (दशवकालिक)
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अध्ययन ७: श्लोक ३६-३६ टि०६२-६६
श्लोक ३६: ६२. संखडि ( जीमनवार ) ( संडि क ) :
भोज ( जीमनवार या प्रकरण ) में जीव-वध होता है, इसलिए इसे 'संखडि' कहा जाता है। भोज में अन्न का संस्कार किया जाता है-पकाया जाता है, इसलिए इसे संस्कृति भी कहा जाता है । ६३. मृतभोज ( किच्चं ख ) :
किच्च-कृत्य अर्थात् मृत-भोज । पितर आदि देवों के प्रीति-सम्पादनार्थ 'कृत्य' किये जाते थे। 'गृहस्थ को ये कृत्य करने चाहिएऐसा मुनि नहीं कह सकता। इससे मिथ्यात्व की वृद्धि होती है। 'कृत्य' शब्द का प्रयोग हरिभद्र सूरी ने भी किया है :
संखडि-पमुहे किच्चे, सरसाहारं खुजे पगिण्हंति । भत्तठं थुव्वंति, वणीमगा ते वि न हु मुणिणो ॥
श्लोक ३७ :
६४. पणितार्थ ( धन के लिए जोवन को बाजी लगाने वाला) (पणियट्ट ख ) :
चोर धन के अर्थी होते हैं । वे उसके लिए अपने प्राणों की भी बाजी लगा देते हैं। इसीलिए उन्हें सांकेतिक भाषा में पणितार्थ कहा जाता है । प्रयोजन होने पर भी भाषा-विवेक-सम्पन्न मुनि को वैसे सांकेतिक शब्दों का प्रयोग करना चाहिए जिससे कार्य भी सध जाए और कोई अनर्थ भी न हो।
श्लोक ३८ : ६५. ( कायतिज्ज ख ):
इसका पाठान्तर 'कायपेज्ज' है। उसका अर्थ है काकपेया नदियाँ अर्थात् तट पर बैठे हुए कौए जिनका जल पी सकें वे नदियाँ, किन्तु इसी श्लोक के चौथे चरण में 'पाणिज्ज' पाठ है। जिनके तट पर बैठे हुए प्राणी जल पी सकें वे नदियाँ 'पाणिज्ज' कहलाती हैं। इसलिए उक्त पाठान्तर विशेष अर्थवान् नहीं लगता ।
श्लोक ३६ : ६६. दूसरी नदियों के द्वारा जल का वेग बढ़ रहा है ( उप्पिलोदगा ख ) :
दूसरी नदियों के द्वारा जिनका जल उत्पीडित होता हो वे या बहुत भरने के कारण जिनका जल उत्पीडित हो गया हो-दुसरी ओर मुड़ गया हो---वे नदियाँ 'उप्पिलोदगा' कहलाती हैं ।
१- (क) जि० चू० पृ० २५७ : छण्हं जीवनिकायाणं आउयाणि संखंडिज्जंति जीए सा संखडी भण्णइ ।
(ख) हा० टी० प० २१९ : संखण्ड्यन्ते प्राणिनामायूंषि यस्यां प्रकरणक्रियायां सा संखडी। २--(क) अ० चू० पृ० १७४ : किच्चमेव धरत्येण देवपीति मणुस्सकज्जमिति ।
(ख) जि० चू० पृ० २५७ : किच्चमेयं जं पितीण देवयाण या अट्टाए दिज्जई, करणिज्जमेयं जंपियकारियं देवकारियं वा किज्जई।
(ग) हा० टी०प० २१६ : 'करणीये' ति पित्रादिनिमित्तं कृत्यैवैषेति नो वदेत् । ३-हा० टी० प० २१६ : पणितेनार्थोऽस्येति पणितार्थः, प्राणा तप्रयोजन इत्यर्थः । ४-जि० चू० पृ० ५२८ : अण्णे पुण एवं पढंति, जहा-कायपेजंति नो वदे, काआ तडत्या पिबंतीति कायपेज्जातो। ५--जि० चू० पू० २५८ : तडथिएहि पाणीहि पिज्जतीति पाणिपिज्जाओ। ६-जि० चू० पृ० २५८ : 'उप्पिलोदगा' नाम जासिं परनदीहि उप्पीलियाणि उदगाणि, अहवा बहुउप्पिलोदओ जासि अइभरियत्त
ण अण्णओ पाणियं बच्चइ।
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