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areसुद्धि ( वाक्यशुद्धि )
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टीकाकार को संभवत: 'फलियाँ नीली हैं, कच्ची हैं, यह अर्थ अभिप्रेत रहा है | अगस्त्य त्रुणि के अनुसार 'पक्काओ ' और 'नीलियाओ' 'छवी इय' के भी विशेषण होते हैं, जैसे—फलियाँ पक गई हैं या अपक्व हैं ।
आयारचूला के अनुसार पक्काओ, नीलियाओ, छवीइ, लाइमा, भज्जिमा, पिखज्जा- ये सारे 'ओसहिओ' के विशेषण हैं। ६०. चिड़वा बनाकर खाने योग्य है ( पिसज्ज )
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पृथुक का अर्थ चिड़वा है । आयारकूला ( ४।३३ ) में 'बहुखज्जाति वा ऐसा पाठ है। शीलाङ्कसूरि ने उसका वैकल्पिक रूप में वही अर्थ किया है जो 'प' का है।
६१. श्लोक ३५
(१) रूढ (२) बहुसम्भूत (२) स्थिर
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इलोक ३५
(क) अ० चि० ३.६५
(ख) जि० ० ० २५६ (ग) हा० डी० ए० २१६
(५) मित (६) प्रसूत
(७) ससार
(४) उत्त
वनस्पति की ये सात अवस्थाएँ हैं । इनमें बीज के अंकुरित होने से पुनर् बीज बनने तक की अवस्थाओं का क्रम है । (१) बीज बोने के पश्चात जब वह प्रादुर्भूत होता है तो दोनों बीज-पत्र एक दूसरे से अलग हो जाते हैं, निकलने का मार्ग मिलता है- इस अवस्था को रूढ़' कहा जाता है ।
(२) पृथ्वी के ऊपर आने के पहरे हो जाते हैं और बीमाकुर की पहली पसी बन जाते है 'सम्भूत' कहा जाता है ।
(३) भ्रूणमूल नीचे की ओर बढ़कर जड़ के रूप में विस्तार पाता है— इस अवस्था को 'स्थिर' कहा जाता है। (४) भ्रूणाग्र स्तम्भ के रूप में आगे बढ़ता है इसे 'उत्सृत' कहा जाता है ।
(५) आरोह पूर्ण हो जाता है और भुट्टा नहीं निकलता उस अवस्था को 'गर्भित' कहा जाता है।
(६) भुट्टा निकलने पर उसे 'प्रसूत' और
(७) दाने पड़ जाने पर उसे 'ससार' कहा जाता है ।
अगस्य चूर्णि के अनुसार ( १ ) अंकुरित को (२) फलित ( विकसित ) को बहुत (३) उपपात से सुबत बीजांकुर की उत्पादक शक्ति को स्थिर (४) सुसंबंधित स्तम्भ को उत्सृत (५) भुट्टा न निकला हो तो उसे गर्भित (६) भुट्टा निकलने पर प्रसूत और दाने पड़ने पर ससार कहा जाता है ।
जिनदास वर्णि और टीका में मी शब्दान्तर के साथ लगभग यही अर्थ है ।
अध्ययन ७ श्लोक ३५ टि० ६०-६१
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१- अ० चू० पृ० १७३ : छवीओ संबलीओ णिप्पावादीण तओ वि पक्काओ नीलिताओ वा ।
२-आ० ० ४१३३ : से भिक्खु वा भिक्खुणी वा बहुसंभूयाओ ओसहीओ पेहाए तहावि ताओ न एवं वएज्जा तंजहा पक्काति वा
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पाओ नाम जवगोधूमादी पिलगा कोरसि साथै जयंति। पृयुका अर्धपश्वशात्यादि कियन्ते ।
भ्रूणाग्र को बाहर
४- आ० चू० ४ | ३३ वृ० : 'बहुखज्जा' बहुभक्ष्याः पृथुकरणयोग्या वेति ।
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अ० ० ० १७३ अंकुरिता बहुसम्भूता सुकसिता जग्गादि उपघातातीताओ विरा सुसंबद्धता उदा अणिमुगाओ माथिम्बिताओ पसूताओ सव्वोषधातविरहिताओ पाओस।
इस अवस्था को
६- (क) जि० चू० पृ० २५७ : 'विरूढा' णाम जाता, बहुसंभूया णाम निष्पन्ना, थिरा णाम निब्भयीभूया उबगया यत्ति उस्सिया भण्णंति, गब्भिया नाम जासि ण ताव सोसयं निष्फिड इति, निफा डिएसु पसूताओ भण्णंति, ससारातो नाम सहसारेण ससारातो सतं बुलाओत्ति वुतं भवइ ।
(ख) हा० टी० प० २१६ : 'रूढाः' प्रादुर्भूताः त' बहुसंभूता' निष्पन्नप्रायाः 'उत्सृता' इति उपघातेम्यो निर्गता इति वा, तथा अयंका 'प्रसूता निर्गत शीर्षकाः 'ससारा' संजाततन्दुलादिसाराः ।
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