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________________ वक्कसुद्धि ( वाक्यशुद्धि ) ३६७ अध्ययन ७: श्लोक ५७ टि०८४-८५ ८४. ( माणवो ग) : अगस्त्यसिंह और जिनदास के अनुसार मनुष्य ही मुनि बन सकते हैं, इसलिए यहाँ उन्हें 'मानव' शब्द से सम्बोधित किया है। हरिभद्र सूरि ने 'मानव' को कर्तृपद माना है । 'माणवा' और 'माणवो' -ये दोनों मूल पाठ के परिवर्तित रूप प्रतीत होते हैं । मूलपाठ 'माणओं होना चाहिए। यहाँ मानव का अर्थ प्रासंगिक नहीं है। मानवश वचन बोलना भाषा का एक दोष है। अतः क्रोध, लोभ, भय और हास्य के प्रकरण में 'मान' शब्द ही अधिक संगत लगता है। किसी कारण से 'माणओ' का मानवो' में परिवर्तन हो गया तब व्याख्याकारों को खींचतान कर मानव शब्द की संगति बिठानी पड़ी। ८५. श्लोक ५७ : भगवान् महावीर ने अहिंसा की दृष्टि से सावद्य और निरवद्य भाषा का सूक्ष्म विवेचन किया है। प्रिय, हित, मित, मनोहर, वचन बोलना चाहिए-यह स्थूल बात है। इसकी पुष्टि नीति के द्वारा भी होती है किन्तु अहिंसा की दृष्टि नीति से बहुत आगे जाती है। ऋग्वेद में भाषा के परिष्कार को अभ्युदय का हेतु बतलाया है सक्तुमिव तितउना पुनन्तो यत्र धीरा मनसा वाचमकत । अत्रा सखायः सख्यानि जानते भद्रषां लक्ष्मीनिहिताधि वाचि ॥ जैसे चलनी से सत्तु को परिष्कृत किया जाता है, वैसे ही बुद्धिमान् लोग बुद्धि के बल से भाषा को परिष्कृत करते हैं। उस समय विद्वान् लोग अपने अभ्युदय को जानते है । विद्वानों के वचन में मंगलमयी लक्ष्मी निवास करती है। महात्मा बुद्ध ने चार अंगों से युक्त वचन को निरवद्य वचन कहा है : "ऐसा मैंने सुना : एक समय भगवान् श्रावस्ती में अनाथ पिण्ड क के जेतवनाराम में विहार करते थे। उस समय भगवान् ने भिक्षुओं को सम्बोधित कर कहा-'भिक्षुओ ! चार अंगों से युक्त वचन अच्छा है न कि बुरा; विज्ञों के अनुसार वह निरवद्य है, दोषरहित है । कौन से चार अंग? भिक्षुओ ! यहाँ भिक्षु अच्छा वचन ही बोलता है न कि बुरा, धार्मिक वचन ही बोलता है न कि अधार्मिक, प्रिय वचन ही बोलता है न कि अप्रिय, सत्य वचन ही बोलता है न कि असत्य । भिक्षुओ ! इन चार अंगों से युक्त वचन अच्छा है न कि बुरा, यह विज्ञों के अनुसार निरवद्य तथा दोष-रहित है।' ऐसा बताकर भगवान् ने फिर कहा : 'सन्तों ने अच्छे वचन को ही उत्तम बताया है । धार्मिक वचन को ही बोले न कि अधार्मिक वचन को-यह दूसरा है । प्रिय वचन को ही बोले न कि अप्रिय वचन को -यह है तीसरा । सत्य वचन को ही बोले न कि असत्य व वन को'--यह है चौथा ॥१॥ तब आयुष्मान बंगीस ने आसन से उठकर, एक कन्धे पर चीवर संभालकर, भगवान् को हाथ जोड़कर अभिवादन कर उन्हें कहा'भन्ते ! मुझे कुछ सूझता है। भगवान् ने कहा - 'बंगीस ! उसे सुनाओ ।' तब आयुष्मान् के सम्मुख अनुकुल गाथाओं में यह स्तुति की: 'वह बात बोले जिससे न स्वयं कष्ट पाए और न दूसरे को ही दुःख हो, ऐसी ही बात सुन्दर है।' 'आनन्ददायी प्रिय वचन ही बोले । पापी बातों को छोड़कर दूसरों को प्रिय वचन ही बोले।' 'सत्य ही अमृत वचन है, यह सदा का धर्म है । सत्य, अर्थ और धर्म में प्रतिष्ठित सन्तों ने (ऐसा) कहा है।' 'बुद्ध जो कल्याण-वचन निर्वाण प्राप्ति के लिए, दुःख का अन्त करने के लिए बोलते हैं, वही वचनों में उत्तम है।" १-(क) अ० चू०११७८ : माणवा ! इति मणुस्सामंतणं 'मणुस्सेस धम्मोवदेस' इति । (ख) जि० चू० पृ० २६३ : माणवा इति मणुस्सजातीए एस साहुधम्मोत्तिकाऊण मणुस्सामंतणं कयं, जहा हे माणवा ! २-हा० टी०प० २२३ : 'मानवः' पुमान् साधुः । ३-ऋग्वेद १०.७१। ४-सु०नि० सुभाषित सुत्त २.५ पृ० ८६ । - Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003625
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Dasaveyaliyam Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1974
Total Pages632
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_dashvaikalik
File Size17 MB
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