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आवारपणही ( आचार - प्रणिधि ]
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अध्ययन ८ श्लोक ५३ टि० १४१-१५२
करते हुए लिखा है- औचित्य देखकर पुरुषों को कथा कहनी चाहिए और स्थान अविविक्त हो तो स्त्रियों को भी कथा कहनी चाहिए'। स्थानासूत्र के प्रतिकार अभयदेवसूरि ने ब्रह्मचर्य की नीतियों के वर्णन में जो कह कहेता भन के दो अर्थ किए है- (१) केवल स्त्रियों को कथा न कहे (२) स्त्रियों के रूपादि से सम्बन्ध रखने वाली कथा न कहे। समवायाङ्ग सूत्र की वृत्ति में उन्होंने 'स्त्रियों को कथा न कहे ऐसा एक ही अर्थ माना है ।
मूल आगम में इसका एक अर्थ और भी मिलता है नारीजनों के मध्य में शृंगार और करुणापूर्वक कथा नहीं करनी चाहिए। अगस्त्य सिंह स्थविर का अर्थ इसीका अनुगामी है और आगे चल कर उन्होंने 'स्त्रियों को कथा न कहे - यह अर्थ भी मान्य किया है ।
देखिए अगली का पाद-टिप्पण
१४. गृहस्थों से परिचय न करे, साधुओं से करे (सिंघवं न कुज्जा ग. साहू संघ ) :
संस्तव का अर्थ संसर्ग या परिचय है। स्नेह आदि दोषों की संभावना को ध्यान में रखकर गृहस्थ के साथ परिचय करने का निषेध किया है और कुशल पक्ष की वृद्धि के लिए साधुओं के साथ संसर्ग रखने का उपदेश दिया है।
श्लोक ५३ :
१५० लोक ५३
शिष्य ने पूछा भगवन् ! विविक्त स्थान में स्थित मुनि के लिए किसी प्रकार आई हुई स्त्रियों को कथा कहने का निषेध हैइसका क्या कारण है ?
आचार्य ने कहा- वत्स ! तुम सही मानो, चरित्रवान् पुरुष के लिए स्त्री बहुत बड़ा खतरा है । शिष्य ने पूछा – कैसे ? इसके उत्तर में आचार्य ने जो कहा वही इस श्लोक में वर्णित है । १५१. बच्चे को ( पोयस्स क ) :
पोत अर्थात् पक्षी का बच्चा, जिसके पंख न आएं हो" ।
१५२. स्त्री के शरीर से भय होता है ( इत्थोविग्गहओ भयं
):
विग्रह का अर्थ शरीर है"। 'स्त्री से भय है' ऐसा न कहकर 'स्त्री के शरीर से भय है' ऐसा क्यों कहा? इस प्रश्न का उत्तर हैमहावारी को स्त्री के सजीव शरीर से ही नहीं, किन्तु मृत शरीर से भी है यह बताने के लिए 'स्त्री के शरीर से भय है' यह कहा है।
१ हा० टो प० २३७ : औचित्यं विज्ञाय पुरुषाणां तु कथयेत्, अविविक्तायां नारीणामपीति ।
२- ठा० ६.३ वृ० : नो स्त्रीणां केवलानामिति गम्यते 'कथां' धर्मदेशना दिलक्षणवाक्यप्रतिबन्धरूपां यदि वा
-' कर्णाटी सुरतोपचार
कुशला, लाटी विदग्धप्रिया' इत्यादिकां प्रागुक्तां वा जात्या देचातूरूपां कथयिता तत्कथको भवति ब्रह्मचारीति । ३ - सम० वृ० प० १५ : नो स्त्रीणां कथा: कथयिता भवतीति ।
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-प्रश्न संवरद्वार ४ : 'वितियं नारीजणस्स मज्भे न कहेयब्बा कहा विचित्ता
५- हा० टी० प० २३७ : 'गृहिसंस्तव' गृहिपरिचयं न कुर्यात्, तत्स्नेहादिदोषसंभवात् । कुर्यात्साधुभिः सह 'संस्तवं' परिचयं, कल्याण
मित्रयोगेन कुशलपक्षवृद्धिभावतः ।
६ - अ० चू० पृ १९८ : को पुण निबंधों जं विवित्तलपणत्थितेणावि कहंचि उपगताण नारीण कहा ण कथणीया । भण्णति, वत्स ! नणु चरितवतो महाभयमिदं इत्थी णाम, कहं । ७- जि० ० चू० पृ० २६१ : पोतो णाम अपक्खजायओ ।
८ (क) जि० चू० पृ० २६१ : विग्गहो सरीरं भण्णइ ।
(ख) हा० टी० प० २३७ : 'स्त्रीविग्रहात्' स्त्रीशरीरात् ।
ह - ( क ) (क) जि० चू० पृ० २९१ आह
समवायो भयं किन्तु
,
(ख) हा० डी० प० २३७
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इत्यीओ भयंति माणिपव्वेता किमत्थं विग्गहगहणं कथं ?, भण्णइ न केवलं सज्जीवईगतजीवाद सरीरं ततोऽनि भयं भव, अओ वह कांति । ग्रहणं मृतविग्रहादपि भत्यापनार्थमिति ।
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