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________________ दसवेआलियं (दशवकालिक ) ४१६ अध्ययन:श्लोक ५४-५६ टि०१५३-१५८ श्लोक ५४: १५३. चित्र-भित्ति ( चित्तभित्तिक): जिस भित्ति पर स्त्री अकित हो, उसे यहाँ 'चित्र-भित्ति' कहा है। १५४. आभूषणों से सुसज्जित ( सुअलंकियं ख ) : सु-अलंकृत अर्थात् हार, अर्ध हार आदि आभूषणों से सज्जित । श्लोक ५५ १५५. ( विगप्पियं ख): विकल्पित अर्थात्--कटा हुआ । टीका में 'कर्णनासाविकृत्ताम्' इति विकृत्त कर्ण नासाम्'--है । इसके आधार पर 'कण्णनास विकट्टियं' या 'विगत्तियं' पाठ की कल्पना की जा सकती है । विकट्टिय-विकृत कटा हुआ । १५६. ( अवि ग ): ___ यहाँ 'अपि' शब्द संभावना के अर्थ में है । संभावना —जैसे जिसे हाथ, पाँव कटी हुई सौ वर्ष की बुढ़िया से दूर रहने को कहा है, वह स्वस्थ अंग वाली तरुण स्त्री से दूर रहे.-इसकी कल्पना सहज ही हो जाती है । श्लोक ५६ : १५७. आत्मगवेषी ( अत्तगवेसिस्स ग ) : दुर्गति-गमन, मृत्यु आदि आत्मा के लिए अहित हैं। जो व्यक्ति इन अहितों से आत्मा को मुक्त करना चाहता है --आत्मा के अमर स्वरूप को प्राप्त होना चाहता है, उसे 'आत्मगवेषी' कहा जाता है । जिसने आत्मा के हित की खोज की उसने आत्मा को खोज लिया। आत्म-गवेषणा का यही मूल मंत्र है। १५८. विभूषा ( विभूसा क ) : स्नान, उद्वर्तन, उज्ज्वल-वेष आदि-ये सब विभूषा कहलाते हैं । १- (क) अ० चू० पृ० १९८ : जत्थ इत्थी लिहिता तहाविध चित्तभित्ति....। (ख) जि० चू० पृ० २६१ : जाए भित्तीए चित्तकया नारी तं चित्तभित्ति । २-(क) जि० चू० पृ० २६१ : जीवंति च जाहे सोभणेण पगारेण हारद्धहाराईहिं अलंकिया दिट्टा भवइ ताहे तं नारि सुयलकितं तं । (ख) हा० टी०प० २३७ : नारी वा सचेतनामेव स्वलङ्कृताम्, उपलक्षणमेतदनलकूतां च न निरीक्षेत । ३-जि० चू० पृ० २६१ : अणेगष्पगारं कप्पिया जीए सा कन्ननासाविकप्पिया। ४–हा० टी०प० २३७ ॥ ५- पाइयसद्दमहण्णव पृ० ६६० । ६ --जि. चू० पृ० २६१ : अविसद्दो संभावणे वट्टइ, कि संभावयति ?, जहा जइ हत्यादिछिन्नावि वाससयजीवी दूरओ परिवज्ज णिज्जा, कि पुण जा अपलिच्छिन्ना वयत्था वा ?, एयं संभावयति । ७-(क) जि० ० ० २६२ : अत्तगवे सिणो, अहवा मरणभयभीतस्स अत्तणो उवायगवेसित्तेण अता सुटठु वा गवेसियो जो एएहितो अप्पाणं विमोएइ। (ख) हा० टी०प० २३७ : 'आत्मगवेसिण' आत्महितान्वेषणपरस्य । ८-अ० चू० पृ० १६६ : अप्पहितगवेसणेण अप्पा गविट्ठो भवति । ६-(क) जि० चू० पृ० २६१ : विभूसा नाम ण्हाणुव्वलणउज्जलवेसादी । (ख) हा० टी०प० २३७ : 'विभूसा' वस्त्रादिराढा । Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003625
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Dasaveyaliyam Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1974
Total Pages632
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_dashvaikalik
File Size17 MB
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