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________________ आयारपणिही (आचार-प्रणिधि) ४१७ अध्ययन ८ : श्लोक ५६ टि० १५६ १५६. प्रणीत-रस (पणीयरस ख): इसका शब्दार्थ है--रूप, रस आदि युक्त अन्न', व्यञ्जन । पिण्डनियुक्ति में 'प्रणीत' का अर्थ गलत्स्नेह (जिससे घृत आदि टपक रहा हो वैसा भोजन) किया है। नेमिचन्द्राचार्य ने 'प्रणीत' का अर्थ अतिबृहक–अत्यन्त पुष्टिकर किया है। प्रश्नव्याकरण में प्रणीत और स्निग्ध भोजन का प्रयोग एक साथ मिलता है। इससे जान पड़ता है कि प्रणीत का अर्थ केवल स्निग्ध ही नहीं है, उसके अतिरिक्त भी है । स्थानाङ्ग में भोजन के छह प्रकार बतलाए हैं -मनोज्ञ, रसित, प्रीणनीय, बहणीय, दीपनीय और दर्पणीय'। इनमें बृहणीय (धातु का उपचय करने वाला या बलवर्द्धक) और दर्पणीय (उन्मादकर या मदनीय-कामोत्तेजक) जो हैं उन्हीं के अर्थ में प्रणीत शब्द का प्रयोग हुआ है। ऐसा हमारा अनुमान है। इसका समर्थन हमें उत्तराध्ययन (१६.७) के 'पणीयं भत्तपाणं तु, खिप्पं मयविवड्ढणं' इस वाक्य से मिलता है । प्रणीत-भोजन का त्याग ब्रह्मचर्य की सातवीं गुप्ति है । एक ओर प्रस्तुत श्लोक में प्रणीतरस भोजन को ब्रह्मचारी के लिए ताल-पुट विष कहा है, दूसरी ओर मुनि के लिए विकृति-दूध, दही, घृत आदि का सर्वथा निषेध भी नहीं है। उसके लिए बार-बार विकृति को त्यागने का विधान मिलता है । मुनिजन प्रणीत-भोजन लेते थे, ऐसा वर्णन आगमों में मिलता है। भगवान महावीर ने भी प्रणीत-भोजन लिया था । आगम के कुछ स्थलों को देखने पर लगता है कि मुनि को प्रणीत-भोजन नहीं करना चाहिए और कुछ स्थलों को देखने पर लगता है कि प्रणीत-भोजन किया जा सकता है। यह विरोधाभास है। इसका समाधान पाने के लिए हमें प्रणीत-भोजन के निषेध के कारणों पर दृष्टि डालनी चाहिए। प्रणीत भोजन मद-वर्धक होता है, इसलिए ब्रह्मचारी उसे न खाए" । ब्रह्मचर्य महाव्रत की पांचवीं भावना (प्रश्नव्याकरण के अनुसार) प्रणीत-स्निग्ध भोजन का विवर्जन है। वहाँ बताया है कि ब्रह्मचारी को दर्पकर-मदवर्धक आहार नहीं करना चाहिए, बार-बार नहीं खाना चाहिए, प्रतिदिन नहीं खाना चाहिए, शाक-सूप अधिक हो वैसा भोजन नहीं खाना चाहिए, डटकर नहीं खाना चाहिए। जिससे संयम-जीवन का निर्वाह हो सके और जिसे खाने पर विभ्रम (ब्रह्मचर्य के प्रति अस्थिर भाव) और ब्रह्मचर्य-धर्म का भ्रश न हो वैसा खाना चाहिए । उक्त निर्देश का पालन करने वाला प्रणीत-भोजन विरति की भावना से भावित होता है१२ प्रणीत की यह पूर्ण परिभाषा है । उक्त प्रकार का प्रणीत-भोजन उन्माद बढ़ाता है, इसलिए उसका निषेध किया गया है। किन्तु जीवन-निर्वाह के लिए स्निग्ध-पदार्थ आवश्यक हैं, इसलिए उनका भोजन विहित भी है । मुनि का भोजन संतुलित होना चाहिए । ब्रह्मचर्य की दृष्टि से प्रणीत-भोजन का त्याग और जीवन-निर्वाह की दृष्टि से उसका स्वीकार-ये दोनों सम्मत हैं । जो श्रमण प्रणीत-आहार और तपस्या का संतुलन नहीं रखता उसे भगवान् ने पाप-श्रमण कहा है और प्रणीत-रस के भोजन को तालपुट-विष कहने का आशय भी यही है । १-अ० चि० स्वोपज्ञ टीका ३.७७ पृ० १७० : 'प्रणीतमुपसंपन्नं'-प्रणीयतेस्म प्रणीतं रूपरसादिनिष्पन्नमन्नम् । २-हल० पृ० ४५२ : पाकेन रूपरसादिसंम्पन्नं व्यञ्जनादि । ३-पि० नि० गाथा ६४५ : जं पुण गलंतनेह, पणीयमिति तं बुहा बेंति, वृत्ति-यत् पुनर्गलत्स्नेह भोजनं तत्प्रणीत, 'बुधाः तीर्थकृदादयो ब्रुवते। ४–उत्त० ३०.२६ ने वृ० पृ० ३४१ : 'प्रणीतम्' अतिबृहकम् । ५-प्रश्न संवरद्वार ४ : आहारपणीयनिद्धभोयण विवज्जते । ६-ठा० ६.१०६ : छविहे भोयणपरिणामे पण्णत्ते, तंजहा-मणुन्ने, रसिए, पीणणिज्जे, बिहणिज्जे, मयणिज्जे, दप्पणिज्जे । ७-उत्त० १६.७ : नो पणीयं आहारं आहरित्ता हवइ से निग्गन्थे। ८-दश० चू० २.७ : अभिक्खणं निविगई गया य । &-अन्त० ८.१। १०-भग० १५ । ११-उत्त० १६.७ । १२-प्रश्न संवरद्वार ४ : 'ण दप्पणं, न बहुसो, न नितिक, न सायसूपाहिक, न खद्ध', तहा भोत्तव्वं जहा से जायामायाए भवइ, न य भवइ विन्भमो न भंसणा य धम्मस्स । एवं पणीयाहारविरति समितिजोगेण भावितो भवति । १३-उत्स० १७.१५ : दुद्धबहीविगईओ, आहारेह अभिक्खणं । अरए य तवोकम्मे, पावसमणि त्ति वुच्चई ॥ Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003625
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Dasaveyaliyam Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1974
Total Pages632
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_dashvaikalik
File Size17 MB
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